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प्राण का अक्षरजाल

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”
इन्दौर (मध्य प्रदेश) 

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“उठ विषज्ञ फणधर थम अञ्चल,
इस ऊपर भय ऋक्ष शङ्ख दह।
औघड़ कई छत्र तज आए ,
बढ़ डग ऐन ओढ झट अं अ:।।”

अर्थात – विष के स्वाद को जानने वाले हे नागराज! रुको और उठकर सुनो। इस क्षेत्र के ऊपर जंगली रीछ, गहरे पानी के भँवर और उनमें बसने वाले शंखों का भय है। इस कारण ही कई औगढ अघोरी सन्त, जिन्हें श्मशान में भी भय नहीं लगता है वे भी अपने – अपने छत्र त्याग कर डग बढ़ाते हुए अंग वसन स्वरूप ‘अं अ:’ अर्थात जो न तो स्वर हैं और न व्यंजन हैं, को ओढ़कर यहाँ आ गए हैं। इसलिए तुम भी उधर मत जाओ।

विशेष –
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उक्त पँक्तियों में हिन्दी की पूरी वर्णमाला है। केवल व पर इ की मात्रा है जो शक्ति की और ङ और ञ स्वर रहित औघढ़ सन्तों के प्रतीक हैं जो अपने छत्रों को छोड़कर चले आए हैं। शेष सभी स्वर सहित व्यंजन हैं या पूर्ण स्वर हैं जो सांसारिकों के प्रतीक हैं। इस तरह वर्ण माला का कोई अक्षर छूटा नहीं है। ड़, ढ़, क्ष, त्र और ज्ञ को भी इसमें स्थान दिया है। आप भी आनन्द लीजिए और बहुत परिश्रम से किए गए इस क्लिष्ट सृजन पर मुझे मन से आशीर्वाद दीजिए।

परिचय :- गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”
निवासी : इन्दौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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