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भूकंप… बाबू और बाबूगिरी…

अरुण कुमार जैन
इन्दौर (मध्य प्रदेश) 

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 मेरा देश, महान देश है, भरत चक्रवर्ती के नाम पर बना भारत। राजा थे चक्रवर्ती राजा, रिद्धि-सिद्धि उनके यहां स्थाई निवास करती थी, सुवासित बहती हवाएं, बाग-बगीचे महलों, हवेलियों में हर वक्त मुक्त रुप बहती थीं। पक्षियों के कलरव, कोकिल कंठी कोयलों के गान, सर उठाए खुला आसमान और सुंदर वितान। परिचारिकाएं और परिचारक रात दिन उनकी सेवा में रत फूले नहीं समाते थे, हर वक्त खुशी के गीत गाते थे। बागों में लहराती तितलियां, गुंजायमान भंवरे, खिले फूलों की सुवासित सुरभि में देश डूबा हुआ रहता था, सुंदर परिवेश, इंद्र के सारे वैभव विद्यमान चौबीसों घंटे आनंद स्नान।
जैसी नीव होती है उसी अनुरूप महल तामीर होते हैं, कालांतर में देश वैसा ही हुआ जैसा जन्मना शाही था। सारे विश्व की आंखें हम पर गड़ी रही। जो आया हम बांहे पसारे उसके स्वागत में वसुधैव कुटुंबकम् की तख्ती पकड़े खड़े रहे। अपने आनंद में निमग्न। समाज और सरकार अपने अपने कार्यों में व्यस्त। समाज वही था, जनता वही थी, और तो और वसुधैव कुटुंबकम् का बोर्ड तक वही, समय के साथ लोग बदल गए, कहने को लोग वैसे ही हैं मगर जैसे उनकी सोच को मोच आ गई है। सोच संकुचित होने लगी, स्वार्थी होने लगी, देश उसी अनुरूप सिमटता चला गया।हमारी जीत पलटने लगी, हार में बदलने लगी। हम लंबे काल खंड तक नैतिकता के वाहक रहे, कपट, छल छंद, कुनीति से कोसों दूर रहे कूटनीति की हमें जरुरत नहीं पड़ी। हमारी कूटनीति कुंद होने लगी।
जैसे आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है वैसे ही अनावश्यकता विध्वंस की परिणीति होती है। विध्वंस चालू होने लगता है जब निर्माण रुक जाता है।इसीलिए निर्माण जारी रहे, रचनात्मकता का विकास जारी रहे। चलते रहो, चलते रहो, रुक गए तो विध्वंस। भारत की राजधानी दिल्ली और अन्य शहरों में ताजा भूकंप इसी का नतीजा है। राजनीतिक दलों की दलदल में विकास रुक गया, विनाश शुरू हो गया।
अभी आहट है सरसराहट है, तूफान के पहले का सार है। प्राकृतिक संदेश है, हमें हमारे किए कर्मों का प्रतिबोध है, याद दिला रहा है, की हमने प्राकृतिक साधनों का जो बदतर और बेजा इस्तेमाल किया है आखिर उसका खामियाजा कहीं पर तो भुगतना ही होगा।
वैसे भी चुनाव आने लगते हैं तो भूकंप के दौर भी शुरु हो जाते हैं, यहां कौन है तेरा… पता ही नहीं चलता, कब कौन मुसाफिर नाव में चढ़ जाए और कौन चलती नाव से उतर जाए, कौन उतार दिया जाए और कौन बिठाल लिया जाए, यह अनंतर प्रक्रिया शुरु हो जाती है। शकुन और अपशकुन शकुनियों के भरोसे। चौसर बिछी हुई है, प्यादे, ऊंट, घोड़े , वजीर सब सज्ज हैं, चाल दर चाल शह और मात के मंसूबे खूब चल रहे हैं।पत्थर तो पत्थर, पहाड़ भी पिघल रहे हैं। आज के चलन में ढल रहे हैं। पैसे की भरमार है जिसके हाथ हो उसी की दरकार है, फिर उसी की सरकार है। मोह बदलते देर नहीं लगती, लक्ष्मी जी चलायमान ठहरी, मोह भंग करवाती है। मोह के माया रुप अनेक, प्रतिरुप अनेक, कभी माया महाठगिनी, कभी रत्नार, पुरुषों की कमजोरी बन आती नार ऊपर से खुले हैं बार। क्या करेगा पुरुष हो जाता है जार जार, कभी तार-तार।
भूकंप आते हैं, भूचाल आते हैं, उत्तुंग शिखर दरक जाते हैं, अपने स्थान से च्युत हो सरक जाते हैं, यही चुनाव में होता है। फिर एक दूसरे को नीचा दिखाना, चूना लगाना रोजमर्रा का घटना क्रम है। भूकंप पीड़ितों की बात चली, खुली सभा में घोषणा हो गई। आर्थिक मदद की घोषणा, जितना जिसका नुकसान उतना उसको अनुदान।प्रशासन ने त्वरित रुप में सर्वे करने का सुझाव दे दिया, इससे कम से कम कुछ राहत फौरी कार्य से मिल जाएगी। बाबुओं की बांछे खिल आई, सर्वे होगा तो रिपोर्ट भी बनेगी, रिपोर्ट में रद्दो बदल भी होगा, फिर मुआवजा भी इसी आधार पर बदला जा सकता है। किस्मत अच्छी है, इस बार कोई जनहानि नहीं हुई अन्यथा घड़ियाली आंसू देश भर के नेताओं के बहते और रेगिस्तान में भी बाढ़ आ जाती। बहरहाल, एनडीआरएफ की नावें चलने से बची रहीं। बाबू वर्ग खुश है की बिना नावें चलाए ही मुआवजा बांटा जा सकेगा।सर्वे टीमों का गठन आनन-फानन में हो गया। नियम तय कर दिए गए। घर-घर सर्वेक्षण भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में शुरु हो गया। प्रभावित नागरिकों के मुरझाए चेहरे कुछ जान-आने से खिलने लगे। सर्वे टीम जानबूझकर बी श्रेणी के नुकसान को सी श्रेणी में डालने लगी, ताकि प्रभावित गण कुछ चिंतित हों और चिंता हरण मंत्र का जाप करते हुए, चिंताचूर्ण गांधी मय पत्र, सर्वे टीम के सुपात्र हाथों में अर्पण कर, इस श्राद्ध पक्ष की श्रद्धा का प्रमाण दे सकें। नौ नकद तेरह उधार का पुनीत सार समक्ष कर सकें। बाबुओं को ध्यान है चुनावी घोषणा पत्र से सरकार म्यान में है। जल्दी करने का कह रही है मगर आचार संहिता लग जाने से कोई भी काम मुल्तवी कर दो। प्रशासन की जलवागिरी दिखाने का इससे बेहतर मौका दूसरा नहीं हासिल। बाबुओं की भृकुटियां तनी हुई हैं, हाथों की मुद्राएं नोटों की गड्डियों से भरी हुई हैं, प्रसन्नता उनके चेहरे से टपक रही है, सज्जनता उनकी बातों से महक रही है। वे जानते हैं किसी कीमत पर मुआवजा बटने नहीं देंगे। चुनाव बाद दूसरी सरकार को फुरसत होगी नहीं तब तक अपनी चलाएंगे।
यही हमारे बाबुओं का सोच है, देश चाहे जितनी तरक्की कर जाए, हर व्यवस्था को ऑनलाइन कर दो, पर इन ऑफ लाइन बाबुओं का आप कुछ भी नहीं कर सकते। देश है, महान है, चल रहा है, बाबुओं और बाबूगिरी। के दम पर लोहा पिघल रहा है। कभी यह समझा जाता था की बाबू कार्यपालिका की सबसे नीचे की कड़ी है, पर विकास होते-होते यह भी कुछ कदम आगे बढ़ी है कुछ पायदान ऊपर चढ़ी है, नायब तहसीलदार से ऊपर तहसीलदार, उससे ऊपर एसडीएम, और डीएम यानी कलेक्टर तक पहुंच गई है। यानी हर दस वर्ष में यह एक पायदान ऊर्ध्व गति से ऊपर चढ़ी है। अफसरान भी बाबूगिरी के दंश से उसी का अंश बन गए हैं। उनकी जबान पर भी बाबूगिरी वाले फंडे रट गए हैं, तोता रट का पाठ वे भी पढ़ गए हैं, कुछ और पायदान उन्हें चढ़ना बाकी है।
सर्वे के खेल और उससे निकल रहा तेल, प्रशासन की मशनरी में जब तक पड़े नहीं, उसकी चूं-चूं बंद नहीं होती, और इस अमर तेल की बेल दिन ब दिन लंबी होती जा रही है। पुष्पित पल्लवित हो रही है, विकास के सौपान चढते हुए नए कीर्तिमान रच रही है। सोने की चिड़िया का देश, चिड़िया बिठाने में माहिर हो चला है। अब बाबूगिरी के कव्वों का देश हो गया है, चौकीदार कितनी चौकीदारी कर ले, हमे देश प्रेम है, संस्कृति और संस्कारों से प्रेम है, श्राद्ध पक्ष में इन कव्वों को निवाला खिलाए बिना पितरों को मोक्ष मिलना मुश्किल है। तर्पण होना मुश्किल है।
।। इति श्राद्धम।।

परिचय :- अरुण कुमार जैन (आईआरएस)
निवासी : इन्दौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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