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बेरंग होते रंग

सरला मेहता
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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छंदमुक्त रचना

सच, कितना कठिन, दूभर होता है
एक स्त्री के लिए ख़ुद को समझना
उससे भी कठिन औरों को समझाना
ज़िन्दगी के हर रंग में एकरस हो जाना
नदी सी यात्रा कर सागर में समा जाना

जन्म से तो मिलता प्यारा गुलाबी रंग
असमानी रंग आने से धुंधलाने लगता
अधिकारों पे कर्तव्य हावी होने लगते
भूल जाती है गुड़िया हक़ का प्यार
वार देती भय्यू पर सारा लाड़ दुलार

लाल रंग की चूनर ओढ़े जाए पियाघर
कड़छुल बन जाती दाल हिलाने को
वार त्योहार पर ही ओढ़ती चुनरिया
फ़िर बरसों सन्दूक में ही रखी रहती
समा जाता लाल रंग काल के ग्रास में

वह सोचती है सबके लिए दिल से ही
ख़याल रखती सभी का हर तरह से
फ़िर फोड़ा जाता है बुराई का ठीकरा
बस और बस उसी के सिर पर आख़िर
व सारे वो सुहाने रंग बदरंग होते जाते

पेट भरती है बचा खुचा खाकर ही
सबको खिलाकर गर्म घी वाले फुलके
सुनना पड़ता है बीमार होने पर उसे
क्यों नहीं करती समय पर भोजन वह
गुलाबी काया पर चढ़ जाता पीत रंग

राय ली जाती है उससे हरेक मुद्दे पर
नहीं मिलता अगर मनचाहा परिणाम
कोसा जाता है उसे बेवकूफ़ कह कर
पर सफ़लता का सेहरा खुद बाँध लेते
बचता चेहरे पे निराशा का स्याह रंग

बच्चे अच्छे निकले तो पति के होते
रक्तसम्बन्ध की दुहाई देने लगते सब
बिगड़ी औलाद के लिए माँ जिम्मेदार
उसके उजले दूध को दाग लगा देते हैं
ममता के पावन रंग को काला कर देते

अपनी रुचियों को छुपा कर कबर्ड में
घर की रंगीनियों को ताज़गी देती वह
टूटी कूची, सूखे रंगों को धूप दिखाती
भूलती आँगन में उतरे सुर्ख सूरज को
उसकी अमावस, पूनम नहीं बन पाती

परिचय : सरला मेहता
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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