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हिन्दी लावणी छंद

शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’
तिनसुकिया (असम)
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भावों के उपवन में हिन्दी,
पुष्प समान सरसती है।
निज परिचय गौरव की द्योतक,
रग-रग में जो बसती है।।
सरस, सुबोध, सुकोमल,
सुंदर, हिन्दी भाषा होती है।
जग अर्णव भाषाओं का पर,
हिन्दी अपनी मोती है।।

प्रथम शब्द रसना पर जो था,
वो हिन्दी में तुतलाया।
हँसना, रोना, प्रेम, दया,
दुख, हिन्दी में खेला खाया।।
अँग्रेजी में पढ़-पढ़ हारे,
समझा हिन्दी में मन ने।
फिर भी जाने क्यूँ हिन्दी को,
बिसराया भारत जन ने।।

देश धर्म से नाता तोड़ा,
जिसने निज भाषा छोड़ी।
हैं अपराधी भारत माँ के,
जिनने मर्यादा तोड़ी।।
है अखंड भारत की शोभा,
सबल पुनीत इरादों की।
हिन्दी संवादों की भाषा,
मत समझो अनुवादों की।।

ये सद्ग्रन्थों की जननी है,
शुचि साहित्य स्त्रोत झरना।
विस्तृत इस भंडार कुंड को,
हमको रहते है भरना।।
जो पाश्चात्य दौड़ में दौड़े,
दया पात्र समझो उनको।
नहीं नागरिक भारत के वो,
गर्व न हिन्दी पर जिनको।।

परिचय :- शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’ (विद्यावाचस्पति)
जन्मदिन एवं जन्मस्थान : २६ नवम्बर १९६९, सुजानगढ़ (राजस्थान)
निवासी : तिनसुकिया (असम)
प्रकाशित पुस्तकें : एकल ५ कविता संग्रह- “दर्पण”, “साहित्य मेध”, “मन की बात”, “काव्य शुचिता”, तथा “काव्य मेध” अन्य रचनाएँ देश की सम्मानित वेब पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। हिंदी साहित्य से जुड़े विभिन्न ग्रूप और संस्थानों से कई अलंकरण और प्रसस्ति पत्र नियमित प्राप्त होते रहते हैं। हिंदी साहित्य की पारंपरिक छंदों में विशेष रुचि और मात्रिक एवं वर्णिक लगभग सभी प्रचलित छंदों में काव्य सृजन में सतत संलग्न।)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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