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दीपक की रोशनी

नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
महराजगंज, रायबरेली (उत्तर प्रदेश)
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चार दिन गुजर चुके थे, टूटी-फूटी मढ़इय्या में सन्नाटे का बोलबाला था। वेदना पांव पसार रही थी, दहलीज से गलियारे पर कुछ हलचल देखी जा सकती थी, लेकिन जर्जर कोठरी की मायूसी को नहीं। कुछ घरेलू सामान अस्त व्यस्त पड़ा था, बर्तनों में जूठन तक नहीं थी, चूल्हे की आग उदर में जल रही थी। झूला बनी खटिया पर रह-रह कर ननकू के कराहने की आवाज मानो उसके जीवित होने का प्रमाण दे रही थी। बेबसी, लाचारी और बीमारी उपहासिक संयोग कर रही थी, सहसा अति कोमल लेकिन रूदित आवाज में रोशनी ने कहा “मां बर्तन भी भेज दोगी तो जब कभी रोटी बनेगी तो?
मां कुछ बोल पाती तब तक दीपक ने धीरे से आंचल खींचते हुए कहा “मां अनाज के पैसे से दुकानदार ने पूरी दवा नहीं दी” मां मुझे भूख नहीं लगी, कुल दीपक के चेहरे पर रोशनी की चिंता दिख रही है, रोजदिन की तरह पड़ोसियों का एकाध नातेदारों का आना-जाना लगा रहा, इनमें कुछ लोग तसल्ली भर देकर धर्म की इति करते हुए भगवान पर भरोसे की सलाह भी दे रहे थे। खुद की तंगी का जिक्र करते हुए इतना तक कह देते थे कि “कोई जरूरत हो तो जरूर बताना”। शाम ढल रही थी दीपक से रोशनी छिपटकर कुछ कहना चाह रही थी, तभी दीपक ने मां के गालों को सहलाते हुए कहा मां “आपने इन सब से मदत मांगी तो है, फिर भी ये लोग ऐसा क्यों कह रहे हैं? रोशनी भी भरी आंखों से मानों दीपक की बात दोहरा रही थी। दुनियावी दस्तूर और नाटकीय संवेदना है मेरे बच्चों कहते हुए मां खमोश हो जाती है। जाकर बीमारे के मारे बेचारे पति ननकू के पास बैठ गई लेकिन बच्चों का मुंह देखकर रो भी नहीं पा रही है। ननकू का कराहना और आंसुओं से वेदना का बहना,अपलक दंपति का एक दूसरे को देखना बस देखते रहना ….
बच्चों की अनकही भूख और दवा की जरूरतों ने अब ननकू की पत्नी को फिर से सेठ और साहूकारों के सामने गिड़गिड़ाने के लिए मजबूर कर दिया लेकिन उसे अब तक रोक रखा था सरकारी मदत के भरोसे ने, गांव के जमींदार पुत्र प्रधान ने किसी मंत्री संत्री से मिलाने व मदत मुहइय्या कराने का भरोसा दे रखा था, आज वो इंतजार भी प्रधान की तार-तार कर देने वाली बात अस्मत पर प्रहार कर देने वाली शर्त के साथ खत्म हो चुका था। बच्चो के बापू और प्रिय पति ननकू की तबियत अधिक बिगड़ती देख मजबूरीबस वह निकल पड़ी मदत मांगने बाल योगेश्वर जी महराज के पास लोक लज्जा बचाते बचाते।
संदेश मिलते ही आलीशान शयन कक्ष से महराज का आना ऐसा लगा कि वह इंतजार ही कर रहा था। “लोक लज्जा के डर से मैं रात में आई हूं, मुझ पर तरस खाओ, मेरे पति को बचा लो, मेरे बच्चों के अन्नदाता बन जाओ, मुझे जरूरत भर का उधार दे दो महराज, मैं पाई-पाई मय सूत चुका दूंगी, मेरे पास मंगलसूत्र भर है चाहो तो इसे रख लो, भगवान के लिए मदत कर दो बाबा” लेकिन योगेश्वर महराज के कान नहीं आंखे काम कर रही थी, फटे-पुराने कपड़ों से ढके यौवन को निहारते हुए जर्जर कपड़ो को आंख से चीरते हुए करीब और करीब पंहुचते हुए स्वामी बोला “हां यह ठीक है कि मैं सूत पर पैसा उठाता हूं लेकिन धन्नासेठों और बड़े-बड़े मुलाजिमों को राजनैतिक बिरादरी को, हे सुंदरी भगवान के लिए नहीं अपने लिए तेरी मदत जरूर करूंगा, मेरी नजर से तू कभी ओझल नहीं हो रही है सुन्दरी जब से तुझे देखा है, रही बात मंगलसूत्र की तो दो कौड़ी का नहीं मेरे लिए अरे तेरी सुंदरता और तेरा ये उमड़ता यौवन ही तेरा गहना है तू रम्भा है री! देख तुझे इतना दे दूंगा की तू उतार नहीं पाएगी तेरा कमाऊ पति ठीक भी हो गया तो फिर पूरी कमाई जुए और शराब में साफ कर देगा, बस तू बच्चों को पकवान खिलाकर यहीं सुला दे और मेरे साथ मेरे आलीशान शयन कक्ष में चल भर, भोर चली जाना कोई कुछ जानेगा नहीं हम दोनों का काम हो जाएगा।

इतना सुनते ही दुलारी की मां स्तब्ध! अवाक! मानो पैर के नीचे से जमीन खिसक गई हो, बाल योगेश्वरी स्वामी महराज को झटकते हुए चुपचाप सुन्दरी उल्टे पांव आ गई अपनी मढ़इय्या में। योगेश्वर जी महराज अकूत संपति के स्वामी थे बहुत नामी ग्रामी थे, गांव के बाहर भव्य महल जैसा आश्रम था और उनके आदेशानुसार कोई महिला और बाला उनके दरबार में प्रवेश नहीं कर सकती थी, शायद यही उनके कथित ब्रम्हचर्य का लौकिक प्रमाण था। स्वामी जी का परम वैभवी विलासी जीवन, लोकसमाज को अंध अनुयायी बनाए था और पीड़ितों को भयभीत, राजनैतिक व प्रशासनिक रसूख के सम्मुख पीड़ित की खमोशी घूम घूम कर नर्तन करती थी। डरी, घबराई, सहमी सुन्दरी कभी पति को देखती कभी रोशनी में दीपक को तो कभी दीपक में रोशनी को। उसकी आंख लगने से पहले ननकू के कराहने की अप्रिय डरावनी आवाज ने उसे कपकपा दिया, अब वह ननकू को और ननकू उसे देख रहे थे, ननकू की आंखों से बहते आंसू ही बात कर पा रहे थे। ब्रम्ह मुहूर्त की बेला अमावस की रात्रि का अहसास करा रही थी, पिता ननकू के सामने कुम्हलाए कमल सरीखे दीपक और रोशनी खड़े हो गए, देखते ही देखते सब एक दूसरे से लिपट गए।
मां मां “बापू को क्या हो रहा है? बोलो बापू कुछ तो बोलो मां! नन्हे हांथों से आंसू पोंछते हुए सहलाते हुए बच्चे भी फफक-फफक कर रोने लगे। बापू हम आपको शहर ले चलेंगे, हम सब मेहनत मजदूरी करके आपको ठीक कर लेंगे, “मैं भी बहुत काम करूंगी रोशनी बोल उठी”।ननकू ने सबका हांथ अपने हांथ में पकड़ लिया, यह क्या अचानक सुन्दरी सिहर उठी! अब एक पिता अपने बच्चों से और पति अपनी पत्नी से सदा के लिए बिछड़ चुका था। सबेरा हो चुका था लेकिन सबका चहेता परिवार का मुखिया सो चुका था सदा के लिए। जिन्दा थी तो केवल शेष जीवितों की भूंख। पड़ोस गली मोहल्ला शांत था, खमोशी परोसी जा रही थी एकाध लोगों की चहलकदमी शुरू हो चुकी थी। जैसे-तैसे गांव गली मोहल्ले और नात-बातों की उदारतता अंतिम संस्कार के प्रति उनके सामाजिक पहलुओं की पुष्टि कर रही थी। करते कराते नौबत आ गई अर्थी की, कुछ बड़े -चढ़े लोगों ने कोठीदारों ने बांस दे दिए लेकिन कर्मकाण्ड के लिए जरूरी सामग्री अभी भी इंतजार कर रही थी, सूर्यास्त की चिंता अलग! हां सुगबुगाहट जरूर थी लोगों में कि कौन करे? कैसे करे? बिना मन के ही सही लेकिन फिर एकत्रित लोगों ने चंदे का प्रस्ताव रखा और सूर्यास्त से पहले दाह संस्कार संपन्न कर दिया।
रात हो चली थी एकाध लोग कुछ खान-पान के साथ आ-जा रहे थे, लगभग दो दिन बच्चे भूखे नहीं रहे, दिन तो जैसे-तैसे बीत रहा था लेकिन रात के सन्नाटें पर चिंताएं और अनसुना विलाप भारी पड़ रहा था, भूख-प्यास और बद्हाली से जर्जर चेहरों को मानों अब कोई देखना नहीं चाह रहा था, बेचारी मां ने एकाध बचे-खुचे बर्तनों को भी बेच दिया पेट के लिए लेकिन दो दिन बाद फिर वही हालात। मुसीबत का मारा शरीर लाचार था मेहनत मजदूरी के लिए, लेकिन मन तैयार था। रात बीती जैसे-तैसे सुबह खड़ी हो गई मजदूर मंडी में, अफसोस जर्जर कमजोर शरीर को किसी ने मजदूरी के काबिल नहीं समझा। तमाम फरियाद के बाद भी किसी ने काम नहीं दिया, उल्टे पांव वापस आ गई। शाम ढल चुकी थी रात की प्रहर में अचानक दीपक की तबियत बिगड़ गयी, बेचारी मां करती भी तो क्या? अधिक बुखार से दीपक का न केवल शरीर जल रहा था बल्कि मां का कलेजा भी। आंचल को बार भिगोकर दीपक के माथे पर रखने के अलांवा और कर भी क्या सकती थी? कभी-कभी तो आंचल भी आंसुओं से भीग जा रहा था, रोशनी भी बदहाल थी। चिराग की बुझती लौ से डरी सहमी रोशनी अंधेरे के डर से मां से छिपट कर छाती से लग जाती है। और फिर सबेरा होता है लेकिन केवल रात का।

सहसा बाल स्वभाव रोशनी मां से पूंछ बैठती है “मां भाई कब मरेगा?” इतना सुनते ही लाचार, बेबस मां अवाक!स्तब्ध, अचेत हो जाती है कुछ बहते आंसुओं के साथ लड़खड़ाती जुबान से कहती है न! न! मेरे बच्चे ऐसा नहीं कहते, तुम्हारा भाई ठीक हो जाएगा, बहुत जल्दी ठीक हो जाएगा। मैं दवा मंगाती हूं न!मासूम दुलारी मां को देखते ही देखते फिर छपट जाती है सीने से और कहती है “मां बापू मरे थे तो लोग खाना देने आए थे”। सुनते ही मां भी फूट-फूट कर रोने लगती है। अगले ही दिन मजबूत मन से औने पौने दाम पर मजदूरी करके दीपक का इलाज करवाती है तन से कमजोर लेकिन मन से मजबूत मां खाने-पीने का भी बंदोबस्त करती है। मुश्किल कुछ रोज पहले दीपक की तबियत ठीक भर हुई थी कि आज कोई दुर्घटना हो गयी लेकिन यह क्या गांव गली मोहल्ले के संपन्न लोग आ धमके उसकी मढ़इय्या पर जद्द बद्द बकते हुए भाग जाने के लिए धमकाने लगे। दोनों बच्चों को छाती से लगाकर बांहों में समेटते हुए घबराई विधवा सुन्दरी लेकिन निडर मां ने पूछा “हे स्वंभू महापुरूषों आखिर हमारा गुनाह क्या है? हमने किया क्या है?” अरे किया नहीं तभी तो! करमजली निर्लज्ज, पूज्नीय बाबा के आश्रम घुस गई भला हो बाबा का कोई दंड नहीं दिया इसे, फिर भरतार खा गई, तेरहवीं तक तो ठीक से की नहीं गांव जवांर चौहद्दी को खिलाया नहीं दान दक्षिना हुआ नहीं, तभी तो अनिष्ट शुरू हुए हैं, अभी तेरा बच्चा बीमार था और अब! बस अब और नहीं चली जा चुड़ैल अब तू यह गांव छोड़कर चली जा नहीं तो हम सब भी मजबूर हो जएंगे।

ये अभिनन्दन, ये चारण, ये वंदन और ये अनसुना करूण क्रंदन।
ये लोकाचार, ये कदाचार ये पद-मद-धन लोभ संलिप्त विचार।
ये सियासी विष वो लोकतंत्र सरीखा चंदन, रौंद रहा कौन जन-गण-मन?।।

परिचय :- नरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
निवास : पूरे जिकरी, पत्रालय-हरदोई, तह. महराजगंज,जनपद-रायबरेली (उत्तर प्रदेश)
सम्प्रति : परास्नातक और विधि स्नातक 
घोषणा पत्र : प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है।


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