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अर्धनारीश्वर

शशि चन्दन
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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मुझसे गलती हो गई ऐसी भी क्या,
जो तन पाया अर्धनारीश्वर का ।
ना प्रकृति न पुरुष में गणना हुई,
जबकि अंश था मुझमें भी ईश्वर का।।

बधाईयां गई मैंने घर घर जाकर,
फिर कोख जानकी की क्यों सूनी मिली।।
ढोल की थाप पे खूब थिरके पांव,
क्यों न फिर केशव की रज धूलि मिली।।

समाज ने सदा उपेक्षित भाव से देखा,
ना शिक्षा का अधिकार न सम्मान पाया।।
बीत गए दिन रैन काल कोठरी में,
हर स्थान ही तो मेरे लिए शमशान पाया।।

मां का आंचल छीना बाबा का कन्धा,
जन्म को मेरे धिक्कार सा माना।।
क्यों न रूप स्वरूप जैसा मिला था,
वैसे ही जग ने सहज ही स्वीकार जाना।।

जाते किस ओर कहो ना नर न नारी हम,
चौदह वर्ष प्रतीक्षारत अपलक नैन रहे ।।
हे राम अहो भाग्य जो तप की श्रेणी में आंका,
आशीष वचन जो सिद्ध होते आपकी देन रहे।।

झलकते हैं नीर झर झर आँखों से हरपल,
पोछने वाला संगी ना मिला तो क्या हुआ।।
स्वयं में पूर्णब्रह्म महसूस कर लेते हम,
सतरंगी जीवन हमें न मिला तो क्या हुआ।।

परिचय :- इंदौर (मध्य प्रदेश) की निवासी अपने शब्दों की निर्झर बरखा करने वाली शशि चन्दन एक ग्रहणी का दायित्व निभाते हुए अपने अनछुए अनसुलझे एहसासों को अपनी लेखनी के माध्यम से स्याह रंग कोरे कागज़ पर उतारतीं हैं, जो उन्हें खुशियों के आसमानी रंग देते हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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