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प्राण के बाण

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”
इन्दौर (मध्य प्रदेश) 

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मेरी लम्बी व लोकप्रिय कविताओं में आए छाँटे हुए उद्धरणीय कवितांश “प्राण के बाण” हैं। पाठकों में इन बाणों की विशेष चर्चा है। ये बाण दोहे नहीं हैं फिर भी‌ दोहे की तरह हर बाण अपना अलग व पूरा अर्थ देता है। सूक्तियों, कहावतों व लोकोक्तियों की तरह अपना कालजयी प्रभाव छोड़ने वाले प्राण के ये बाण प्रायः लावणी, ककुभ अथवा ताटंक छन्दों में होते हैं। एक कविता या एक प्रसंग के न होने से सभी बाण अलग अलग तारतम्य में हैं। पढ़िए।

प्राण के बाण की एक किश्त
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१.
जब करती निराश असफलता
आती विपदा घड़ी घड़ी।
पड़ी पड़ी प्रतिभाएँ पागल
हो जातीं हैं बड़ी बड़ी।।

२.
कापुरुषों के लगे निशाने
महाशूरमा चूक गए।
कोयल रही टापती मौका
पाकर कौए कूक गए।।

3.
जब कवियों ने बढ़ाचढ़ा कर,
कौओं को खगराज कहा।
व्याख्या करने वालों ने तब,
गर्दभ को गजराज कहा।।
कहा बटेरों को ब्रजरानी,
बगुले को ब्रजराज कहा।
“प्राण” गिलहरी को गुलबदना,
बिल्लड़ को वनराज कहा।।

४.
हारे नहीं हिम्मती राणा
ऊँचा और ‌ललाट किया।
कटता काठ कुल्हाड़ी से
जो नाखूनों से काट दिया।।

५ .
जो न बता पाते थे अन्तर
केले और करेले में।
वे रस के मुखिया बन बैठे
प्रजातंत्र के रेले में।।

६.
जिनकी शक्ल देखते रोटी
के लाले पड़ जाते हों।
कौओं की क्या कहूँ कबूतर
तक काले पड़ जाते हों।।
उनके सम्मुख अपना माथा
रोज टेकना पड़ता है।
जिन्हें देखना नहीं चाहता
उन्हें देखना पड़ता है।।

७.
नकली कुछ ऐसा हावी है
नकली असली लगता है।
और असलियत वाला असली
सचमुच नकली लगता है।।

परिचय :- गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”
निवासी : इन्दौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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