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बसन्ती महक उठी

बृजेश आनन्द राय
जौनपुर (उत्तर प्रदेश)
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बासन्ती, महक उठी !
चंचल-प्रकृति-बीच-
कोयल बहक उठी !
गुलमोहर की डालों-पे
गिलहरी-लहराई !
अढ़उल की शाखों पे-
गौरैया-शरमाई !

सेमल-पलास बीच
दिशाऍ लहक उठी !
पीपल पे हरी-हरी
बदली छिटक उठी…!
पाकड़ पे ‘उजास’ फूटा,
बरगद पे ठिठका !
मौसम का ठौर-ठौर
वृक्षों पे अटका !
महुआ के गुंचो में
रसना समा रही !
अमरइया की मंजरी-
किसको न भा रही !

मोरों को लय-ताल
तीतर समझा रहा..
कपोत कुछ आगे फिर-
पीछे-को जा रहा.. !
नीम के कोतड़ में
तोते आनन्द-भरें…
कठफोड़वा के श्रम पे
ना जरा भी गौर करें..!
जामुन के फूलों पे-
भवरी-लहराई !
छींट-सारी पहनाई!

शिरीष की शाखों-पे
कर्णफूल लटक रहे !
अमलताश अब भी-
पीताभ को तरस रहे!
अर्जुन ने देखो,
नव-किसलय है पाया!
गूलर का फूल कहॉ
सबको नजर आया!
अन्दर ही अन्दर ‘प्रकृति’,
रचना अपार करे!
ऊपर से नीचे तक
कटहल का पुष्प फरे !
शीशम के पातों पर
धानी निखार आई !
चिलबिल भी जगने को-
ली है अंगड़ाई !

कैथी संग इमली भी
थोड़ा सटक उठी !
बासन्ती, महक उठी !!

परिचय :-  बृजेश आनन्द राय
निवासी : जौनपुर (उत्तर प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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