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अबे ओ काले घन!

शैल यादव
लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज)
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अबे ओ काले घन!
क्यों बना रहे हो हमें
और भी निर्धन,
पेशे से ‌भले ही
मैं ‘किसान’ हूॅं,
लेकिन यार मैं भी
तो एक इंसान हूॅं,
नहीं मिलती किसी भी
प्रकार की हमको पेंशन है,
दिन-रात,सुबह-शाम,
आठों पहर केवल टेंशन है,
चैत माह में जब रबी की
फसल तैयार है,
फिर बूॅंदों की तलवारों
और ओलों से क्यों प्रहार है,
हमारी जिंदगी में क्यों
रोड़े बन रहे हो,
निरपराध के लिए भी
क्यों कोड़े बन रहे हो,
तैयार फसलों को देखकर
कैसे तुम्हारा मन करता है आने को,
अब तुम ही बताओ कहाॅं से
लाऊॅं अन्न बच्चों को खाने को,
खून पसीने से सींच-सींच कर
जब मैं अन्न उगाता हूॅं,
तब जाकर कहीं बच्चों के लिए
मैं दो वक्त की रोटी पाता हूॅं,
लेकिन अबकी बार तो
रोटियों से पहले तुम आ गए,
मौत का तरल दूत बनकर
गगन में तुम छा गए,
अब तुम ही बताओ
कैसे हो गुजारा मेरा,
केवल फसल ही तो
एक मात्र है सहारा‌ मेरा,
अगर मेरे बच्चे भूख से मरें
तो‌ क्या? तुम्हें पाप लगेगा,
एक बेबस लाचार किसान का ‌
क्या? शाप तुम्हें लगेगा,
कैसे हो सकते हो तुम
इतने हृदय हीन,
अन्नदाताओं को ही तुम क्यों
कर रहे हो गमगीन,
अब अपनी निगाह
कहीं और तुम मोड़ दो,
जाओ चले जाओ
जो बचा है उसे छोड़ दो।

परिचय :- शैल यादव
निवासी : लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज)
सम्प्रति : शिक्षक- जीआईसी
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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