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पतझड़ मानवता का

सोनल सिंह “सोनू”
कोलिहापुरी दुर्ग (छतीसगढ़)

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पेड़ों से छूटा पत्तों का साथ,
दिल में बाकी रहे न जज्बात।
कोई नहीं बढ़ाता मदद का हाथ,
लोग बदल जाते हैं अकस्मात्।
ये है नैतिकता के पतझड़ की शुरुआत।

कोई समझता नहीं किसी की बात,
आपस में टकराने लगे ख्यालात।
उजालों को निगलने लगी स्याह रात,
बद् से बद्तर हो रहे हालात्।
ये है मानवता के पतझड़ की शुरुआत।

तरक्की पर अपनों की हृदय में साँप लोट जाता है,
ईर्ष्या द्वेष के गर्त में मानव डूब जाता है।
अपना कहकर लोगों को छला जाता है,
शराफत का लबादा ओढ़े हैवान नजर आता है।
अपनत्व का ये पतझड़ थम नहीं पाता है।

प्रकृति का पतझड़, मधुमास में बदल जाता है।
नई कोपलें आती हैं, पलास भी मुस्काता है।
गुलमोहर भी खिलने को आतुर हो जाता है।
किन्तु इंसान इंसानियत से दूर ही रह जाता है।
मानवीय मूल्यों का ये पतझड़ थम नहीं पाता है।

परिचय – सोनल सिंह “सोनू”
निवासी : कोलिहापुरी दुर्ग (छतीसगढ़)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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