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कोई नहीं लिखता अब चिट्ठियां

रेणु अग्रवाल
बरगढ़ (उड़ीसा)
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कोई नहीं लिखता अब
किसी को चिट्ठियां
अतीत का हिस्सा हुए खुतूत

लाठी टेकती
कॉपती बूढ़ी और जर्जर देह
अब नहीं जाती डॉकखाने तक
पोपले मुंह से पूछने-
आया उसके बेटे का खत?

अब नहीं लौटती उसकी टूटी और
घिसा चुकी चप्पलें किसी
खामोश निराशा की
उबड़-खाबड़ पगडंडी से
अब नहीं उलझता उसके
लहंगे का कोई छोर
किसी कांटेदार झाड़ी में
नहीं टपकती उसकी आंखों से
करूणा और ममत्व से लबरेज
टप-टप आंसुओं की बूंदें
गहरी निराशा में
किसी बरगद किसी पीपल की
धनेरी छॉह में बैठ
ठंडी सांस भरते

किसी को नहीं मिलती अब
वे गुलाबी चिट्ठियां
पाने के लिए जिन्हें अंगार-सी
दहकती जमीन पर
पांव नंगे दौड़-दौड़ जाते थे
कि जिन्हें पढ़ने के लिए भी
एकांत और चमेली का कोई झुरमुट
जरूरी हुआ करता था
जिनके पन्नें शिकवे-शिकायतों की
दिलकश खुशबू से सराबोर होते
जिन्हें रात को कंदील के
मध्दम उजाले में एक नहीं
बीसियों बार पढ़ा जाता
और फिर-फिर पढ़ने के लिए
संदूक के सबसे
निचले हिस्से में बिछे
अखबार की गुमनाम तह में
दिल की धड़कनों के साथ
छुपा दिया जाता था

ऐसे खत कि जिनकी एक-एक पंक्ति
रातों को मुस्कराने-लजाने और
करवटें बदलते
तकिया भिगोने का मजबूर कर
दिया करती थीं
अब नहीं मिलते!

वह कलम न जाने कहां
खो चुकी जिनसे
ऐसे नायाब खुतूत लिखे जाते और
न जाने कितने शायरों से
माफी मांगे बिना उनके लिखे अशरार
चुरा लिए जाते
कहानियां चुरा ली जाती
किस्से चुरा लिए जाते थे!
मीर तकीं मीर, गालिब
जां निसार अख्तर, मोमिन खां मोमिन
चुरा लिए जाते

जिनकी रोशनाई
दिनों- दिन सूरज की मानिंद
उजली और उजली
होती जाती थी
जिनके हरूफ सोने-चांदी से दमकते थे
ऐसे खत अब नहीं मिलते

अब नहीं मिलते कई दिनों के
इंतजार में पथराई आंखों को
वो मनिओडर जो गरीब का
चूल्हा अनेक दिनों-
ठंडा नहीं होने देते थे
एक आग अब नहीं सुलगती
चिंनगारी अब नहीं दहकती है

ब्याह-शादी के आमंत्रण मिला करते
अभी भी लेकिन पहले सरीखी
उनमें मनुहार रही कहां?
और नहीं जा सकने पर
बरसों न उतरने वाला गुस्सा
अब रहा कहां?

एक पीढ़ी की धरोहर बन चुकी
लेकिन अब नहीं मिलतीं
वह चिट्ठियां!

परिचय :-  रेणु अग्रवाल
निवासी – बरगढ़ (उड़ीसा)
सम्मान – हिंदी गौरव राष्ट्रीय सम्मान २०२२
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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