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मेरी पहली पदयात्रा

आयुषी दाधीच
भीलवाड़ा (राजस्थान)

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आज तो पुरे परिवार का शाम का भोजन मौसी के घर पर था। सभी एकत्रित हुए मिल-जुल कर भोजन किया और हम सब बाते करने लगे तभी अचानक मेरी माँ ने कहा कि गढ़बोर चारभुजा की पैदल यात्रा करनी है, तो वहा चले क्या तो सभी ने एक बार तो हाँ कर दी। सभी यात्रा की योजना बनाने लगे कि सुबह कितनी बजे निकलना है कैसे क्या करना है, यहाँ से कितना दूर है। सब कुछ जैसे ही तय हुआ की एक-एक करके ना जाने के कुछ बहाने बनाने लगे। ये सब कुछ दो घण्टे तक ऐसे ही चलता रहा कोई चलने के लिए हाँ करता तो कोई ना करता, समय बितता गया और वापस सभी अपने घर जाने लगे।
सभी ने एक दूसरे को शुभ रात्रि कहा और तभी मेरी भाभी ने कहा कि आपके भैया ने हाँ कर दी तो मै चलने के लिए तैयार हूँ, फिर कुल मिलाकर हम पाँच ने हाँ की जाने के लिए। घर पर आए तब तक रात के दस बज गये थे, फिर थोड़ी देर बाद हमने जो व्हाट्सएप्प ग्रुप बनाया था उसमे मैसेज आया कि कौन-कौन जा रहा है कल, तो उसमे नाम आए- (माँ, मेरी दोनो भाभी, मोहित और ज्योति) अब हमने फटाफट से पैकिंग करना शुरू किया और सभी आवश्यक सामान ले लिया। हम जल्दी सो गये क्योकि सुबह घर से जल्दी निकलना था।

अगले दिन सुबह जल्दी उठकर हम सब समय पर तैयार हो गये थे और भाभी ने पाथेय की भी व्यवस्था अपने साथ लेली थी। हम पाँचो आठ बजे भीलवाड़ा से देवरिया के लिए बस से रवाना हो गए थे, हमें हमारी यात्रा देवरिया जो कि मेरा ननिहाल है वहाँ से शुरू करनी थी इसलिए हम पहले वहाँ पहुँचे। रास्ते मे हमने कचौरी का नाश्ता कर लिया था, वैसे मै आपको बताना भूल गयी कि सर्दी का मौसम था पर आज कुछ हल्की ही ठण्ड थी तो हम आराम से बिना परेशान हुए ये यात्रा कर सकते थे।
सुबह के दस बजकर पन्द्रह मिनट पर हम नाना-नानी से और मेरी छोटी मामी जी से मिलकर वहाँ से रवाना हो गये- अब हमारी पदयात्रा प्रारंभ हो चुकी थी, हमने ‘जय चारभुजा नाथ’ का जयकारा लगाया और अपने क़दमों को अपनी मंजिल की ओर बढ़ाने लगे। कुल ६५ किलोमीटर हमको चलना था, पहले कभी इतना चले नही थे फिर भी मन मे ठाना था ठाकुरजी के दर्शन करने का। गांव के तालाबो की पाल के रास्ते को हमने अपनी राह का साथी बनाया था। माँ के क़दमों की चाल को देख हमने अपने क़दमों की चाल को बढ़ाया था। बातो ही बातो मे रास्ता कटता गया एक गाँव से दुसरे गाँव की और नजदीक आते गये। रास्ते मे झाड़ियों के मिठे बेर का लुफ्त उठाते गये। सूरज की वो छलनी सी छुप, हल्की-हल्की ठण्ड की वो लहरे, मिट्टी की वो सोन्धी सी खुशबु मन को मचल रही थी। रास्ते मे कोई मिलता तो उससे हम हमारी मंजिल का पता पूछते चलते, कोई कहता आथूणो ही चाल्या जाज्यो।
दोपहर के करीब तीन बजे हम आमेट से १० किलोमीटर दूर थे। अब हमने बड़े ही आराम से भोजन किया, और कुछ फोटो भी खिचे जो हमें व्हाट्सएप्प ग्रुप मे भेजने थे। हम चलते गये शाम ढलती गयी। हमारी आज की रात का आशियाना आमेट मे एक रिश्तेदार के यहाँ था। हम लगभग रात के आठ बजे उनके घर पहुंच गए थे। उन्होंन भी बड़े ही सत्कार के साथ हमारा स्वागत किया। लकड़ी का अलाव जलाया गया, हमने भी उसका पूरा लुफ्त उठाया। बातो मे वक्त का पता ही न चला।
हम अगली सुबह जल्दी उठकर तैयार हुए और अपनी यात्रा के लिए फिर से चल दिए। उस दिन २६ जनवरी थी तो चारो और तिरंगे फहरा रहे थे। अब हमारा रास्ता अरावली की चोटियों से होते हुए गुजर रहा था। कभी घुमावदार मोड तो कभी ऊपर नीचे चढ़ती सड़कें। हमें तो उन पर चलने का बड़ ही आनंद आ रहा था। क्योकि हमारे प्रभु ने हमे शक्ति दी हुई थी। थकने का इसलिए एहसास न हुआ क्योंकि साथ चलने वाला अपना जो था। रास्ते मे आने वाले गाँवो के नाम बड़े मजेदार थे। किसी गाँव का नाम ‘आसन’ था तो किसी गाँव का नाम ‘नीम का खेड़ा’ था।
एक मजे की बात तो ये है कि उस गाँव की सड़कों के दोनो तरफ केवल नीम के ही बहुत से पेड़ लगे हुए थे।
रास्ते मे होटल पर रूके खाना खाया और कुछ मिनट आराम करके फिर हम वहाँ से रवाना हुए। धीरे-धीरे शाम का वक्त होने लगा, ठण्डी सी हवा चलने लगी। अब हमने भी अपनी रफ्तार को तेज करी क्योंकि हमें भी जल्दी पहुँचना था। अन्धेरा होने लगा था, मन मे एक ख्वाब था कि प्रभु के दर्शन हो जाये। चलने का काम था, थकने का नाम न था। चलते-चलते कब पुरा रास्ता पार हो गया पता ही ना चला।

हम शाम के सात बजे प्रभु के दरबार मे पहुँच गये थे। सभी भक्तो ने मिलकर प्रभु के भजनो का आनन्द लिया, फिर हमने प्रभु के दर्शन किए।दर्शन करने के बाद हम लोगो ने कुल्हड़ की चाय-दूध का लुफ्त उठाया। तब-तक हमारी गाड़ी भी आ चुकी थी अब हमे वहा से निकलना था।गाड़ी मे बैठते ही मैं तो अपनी भाभी की गोद मे सिर रखकर सो गई, उन्होंने भी मुझे लोरी गा कर सुला दिया। मुझे तो वापस आते वक्त के रास्ते का पता ही ना चला। रात के करीब ग्यारह बजे हम भीलवाड़ा आ गये थे। मुझे तो इस पदयात्रा मै बहुत ही मजा आया था क्योंकि हम पाँचो का अपना ही मजा था। उन सुनसान सी सड़को पर चलना मुझको अच्छा लगा था।

परिचय :-  आयुषी दाधीच
शिक्षा : बी.एड, एम.ए. हिन्दी
निवास : भीलवाड़ा (राजस्थान)
उद्घोषणा : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।

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