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जी भर कर जीने दो

विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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कष्ट बेचारा सीधा सादा, उसे दुख दे लेने दो।
नखरे होते खुशियों के, जी भर कर जीने दो।

माना सुख-दुख दोनों, बिना तैयारी के आते
दोनों को ही वहन करने, निभनेवाले हों नाते
कंटकमय पथ में ही, साहस राहत खुद लाते
डर के आगे जीत सूत्र, हे! मानव पनपने दो
कष्ट बेचारा सीधा सादा, उसे दुख दे लेने दो।
नखरे होते खुशियों के, जी भर कर जीने दो।

कच्ची माटी का घड़ा, या कच्ची उमर के लोग
सहन_शक्ति के बाहर, प्रबल हो जाता संयोग
अंतर्मन मजबूत सदैव, पड़ता पस्त शोक रोग
दुख संतप्त देखकर, कुछ को खुश हो लेने दो
कष्ट बेचारा सीधा सादा, उसे दुख दे लेने दो।
नखरे होते खुशियों के, जी भर कर जीने दो।

सागर मंथन इतिहास, अमृत जहर बटवारा
स्वजन संग लुटता सुख, बेबस दुख ही हारा
पहचाने ही अनजाने से, कन्नी काटता बेचारा
सुख खुशी के मार्ग कम, दुख राहें मचलने दो
कष्ट बेचारा सीधा सादा, उसे दुख दे लेने दो।
नखरे होते खुशियों के, जी भर कर जीने दो।

मुफ्त आसानी निभते, स्वार्थ भाव रहे निहित
हां में हां करता ऐसे, मिले सुमन सुगंध सहित
सहसा नौबत काज में, दूर हटे सहयोग रहित
त्रेता द्वापर से सीखे, निज शक्ति ही बढ़ने दो
कष्ट बेचारा सीधा सादा, उसे दुख दे लेने दो।
नखरे होते खुशियों के, जी भर कर जीने दो।

परिचय :- विजय कुमार गुप्ता
जन्म : १२ मई १९५६
निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़

उद्योगपति : १९७८ से विजय इंडस्ट्रीज दुर्ग
साहित्य रुचि : १९९७ से काव्य लेखन, तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी द्वारा प्रशंसा पत्र
काव्य संग्रह प्रकाशन : १ करवट लेता समय २०१६ में, २ वक़्त दरकता है २०१८
राष्ट्रीय प्रशिक्षक : (व्यक्तित्व विकास) अंतराष्ट्रीय जेसीस १९९६ से
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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