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माँ केवल माँ जैसी होती

डॉ. अवधेश कुमार “अवध”
भानगढ़, गुवाहाटी, (असम)
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चाहता हूँ वक्त को, मुट्ठी में अपने बंद कर लूँ,
ज़िंदगी की दौड़ में अब, माँ न मेरी दौड़ पाती।
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जंग लड़ती ही रही माँ, ज़िंदगी भर ज़िंदगी से,
वक्त ने धोखा दिया है, ज़िंदगी के साथ मिलकर।
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माता ने फिर भाँप लिया है, बेटे की नादानी को,
किंतु न बेटा समझ सका है, कुर्बानी अपने माँ की।
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माँ को अपने छोड़ गया है, बेटा एक अनाथालय में,
वर्षों पहले उस बच्चे को, उसी जगह से गोद लिया था।
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माँ – बापू को छोड़ अनाथालय में, बेटा भागा है,
शायद उसके तीर्थाटन की, ट्रेन छूटने वाली है।
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पढ़ी- लिखी वह नहीं किंतु बेटे का मन पढ़ लेती है,
जाने कब, किन स्कूलों में, माँ ने ये भाषा सीखी?
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माँ केवल माँ जैसी होती, गुरु, ईश्वर सब पीछे हैं,
जग में ऐसा बैंक नहीं, जो उसके ऋण को चुका सके।
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परिचय :- डॉ. अवधेश कुमार “अवध”
सम्प्रति : अभियंता व साहित्यकार
निवासी : भानगढ़, गुवाहाटी, (असम)
शपथ : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मेरी यह रचना पूर्णतः मौलिक, स्वरचित और अप्रकाशित हैं।


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