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युद्ध और जीव

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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दिन माह बरस बीत रहे,
युद्ध की विभीषिका अभी शेष है
हवाओं की सरसराहट,
क्रंदन सी प्रतीत हो रही है
पर्वतों के शिखर चीख-चीख कर
आतंक की गवाही दे रहे हैं
पक्षियों की चहचहाहट
रुदन में बदल रही है
इन जीवों की कराह से
धरती भी सिसक रही है
युद्द ने जीवो के
हृदय को छला है
जीव जंतुओं का रक्त
सुखी पत्तियों सा पड़ा है
प्रकृति उसी क्षण
बुढ़ी लगने लगी है
मानो उसके रंग
पिघलने लगे हैं
घरों के उजड़ने का क्रम
थमा नहीं है अभी
ना ही आंसुओ का
सैलाब रुका है
युद्ध मासूम जीवों को
निगल रहा है शनैः शनैः
कोई रास्ता शेष नहीं
दिख रहा जीवन का
हे मनुष्य!! मासूम जीवों को
दम तोड़ते-छटपटाते पीड़ा को
क्या तिरस्कृत कर दिया है तुमने?
क्या इनकी मौत पर
शोक मनाने को
इन्सानियत जिंदा नहीं रही?
क्या अपराध है इन असहाय
अबोध सहचरो का
जो रात दिन अपनी
वफादारी का प्रमाण देते रहे
पूरी कायनात सिसक रही
इन अबोध प्राणियों के चित्कार से
देख इनकी दुर्दशा सीना
छलनी हो रहा प्रकृति का
जीवों का अस्तित्व मानो
विलीन हो रहा है
हे मानव सम्भल जा
ना कर क्रूरता सृष्टि से
ये मूक, मासूम रंग बिरंगे
जीव जंतु धरोहर हैं इस धरा के
स्वयं को ईश्वर समझ
ना बन विनाश का कारण तू
कहीं प्रकृति भी तांडव को
मजबूर ना हो जाए
अस्तित्वहीन हो जाए
ये जीवन क्षण भर में
छोड़ अहम,
वर्चस्व की लड़ाई
समय है चेत जा,
समझ जीवन के
महत्व को
सहेज लो जीवन
जीवों के रूप में,
लौटा दे हरे भरे रंग
और गुंजन के स्वर
समेट ले आगोश में
इनकी मासूमियत को
फिर से चहकने लगें
ये तुम्हारे सहचर बनकर!!

परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी
जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी
शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार)
निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक ने लेखन की प्रेरणा दी और विगत ६-७ वर्षों से अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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