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हर्फ़-हर्फ़ जानने से

ज्ञानेन्द्र पाण्डेय “अवधी-मधुरस”
अमेठी (उत्तर प्रदेश)

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हर्फ़-हर्फ़ जानने से ही कहाँ बना करती है ग़ज़ल ।
है इसके लिए तो पर्त-दर-पर्त रूह में उतरना होता ।।

मिलतीं रहीं निग़ाहें सजती रही ग़ज़ल ।
रुख़सार झलक जाए बनती रही ग़ज़ल ।।

साँसों में भरके निक़हत उतरे सुरूर दिल में ।
ज़ज़्बात मचल जाए उड़ती रही ग़ज़ल ।।

बर्दाश्त करे कब तक कोई लू के थपेड़े ।
कुरब़त में उलझ जाए छलती रही ग़ज़ल ।।

शिकवे-गिले वफ़ा के दोनों के दरमियाँ बस ।
अरमाँ बिखर जाए पिसती रही ग़ज़ल ।।

नजरें बचा-बचा के अदा गुफ़्तगू करे है ।
महफ़िल में गज़ब ढ़ाये जमती रही ग़ज़ल ।।

छोटी सी ज़िन्दगी के किस्से हैं अनगढ़े से ।
बिन बात बहक़ जाए चलती रही ग़ज़ल ।।

बे-क़ैफ़ी कैसी भी हो हाँ तंज़ नहीं करना ।
अश्आर सँवर जाए कहती रही ग़ज़ल ।।

मिलतीं रहीं निग़ाहें सजती रही ग़ज़ल ।
रुख़सार झलक जाए बनती रही ग़ज़ल ।।

(निक़हत- महक, कुरब़त- निकटता, बे-क़ैफ़ी- निराशा, तंज़- विरोध)

परिचय :-  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय “अवधी-मधुरस”
निवासी : अमेठी (उत्तर प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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