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अंधेरा अच्छा नहीं साहब

राजेन्द्र लाहिरी
पामगढ़
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सदियों से अंधेरे में रहे हैं,
पल पल तकलीफें सहे हैं,
कभी किसी से कुछ नहीं कहे हैं,
हमने कभी किसी का रक्त नहीं बहाया
पर पग-पग हमारे रक्त बहे हैं,
हम कोई रात्रिचर जंतु जानवर तो नहीं
कि अंधेरा हमें पसंद हो,
हमने कभी नहीं चाहा कि
किसी के साथ हमारा द्वंद्व हो,
अपने हिसाब से रहने की,
अपने हिसाब से चलने की,
इतराने की, मचलने की,
हमारी भी इच्छा रही है,
पर तब हम पर
जबरन अंधेरा थोपा गया था,
काले विधानों के जरिए
हमारे पीठ में छुरा घोंपा गया था,
अंग्रेजों से आजादी आप लोग पा गये,
लेकिन हम तो वहीं के वहीं रह गये,
आपका छप्पन भोग जारी है
अपने हिस्से अभी भी अंधियारी है,
इसके लिए आपकी
वहीं पुरातन सोच जिम्मेदार है,
आपके सोच बता रहे हैं
कि अभी भी आप मानसिक बीमार हैं,
चार दिनों तक इस थोपे गये
अंधेरे में रहकर देखिये,
तब आप कह उठेंगे कि
अंधेरा अच्छा नहीं होता है साहब,
दिखावटी दीये जलाने से अच्छा है
मन में समता के दीये जलाइए,
मुस्काइये सबको गले लगाइये।

परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी
निवासी : पामगढ़
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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