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घर के दीप संभाल जरा…

हंसराज गुप्ता
जयपुर (राजस्थान)

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घर के दीप, संभाल जरा,
कहीं बिजली धोखा दे जाये।
मन्द ताप, बाटी बनती,
भट्टी में सेके, जल जाये,
यात्रा, उडान, श्रम की थकान,
अपने घर में ही उतरे,
घर आंगन की तरुणाई ही,
उर अन्तर की प्यास भरे,
हाथी पागल हो जायें,
पर पिल्लै साथ निभायेंगे,
सांपों को दूध पिलाने वाले,
सर्पदंश ही पायेंगे,
देख भीड को बहको मत,
कहीं खुद का बच्चा खो जाये,
घर के दीप, संभाल जरा,
कहीं बिजली धोखा दे जाये।

भाई हो कमजोर कोई,
यदि उनका भार उठायेंगे,
वक्त पडे, किसी कठिन दौर में,
वे ही साथ निभायेंगे,
मेड का कूँचा ऊँचा हो तो,
साख फसल सुख पाता है,
वही श्मशान में खुद जलता,
औरों की चिता जगाता है,
कुश्ती है, कंधे टेको मत,
कोई बाजी कब अपनी ले जाये,
घर के दीप, संभाल जरा,
कहीं बिजली धोखा दे जाये।

रंगा सियार बन चहको मत,
चेहरा कब असली दिख जाये,
झूठे केश और छद्म वेष कब
चौराहों पर बिक जायें,
दादी का मटका, नानी की कहानी,
सीख बया कब दे जाये,
ढपोर शंख ज्यों फेंको मत,
निर्धन के प्राण निकल जायें,
उडो गगन में याद रहे यह,
सांझ पडे घर आना है,
सागर की लहरों से खेलो,
नाव किनारे लाना है,
पतवार हाथ की टेको मत,
कहीं अवसर फिर ना मिल पाये,
घर के दीप, संभाल जरा,
कहीं बिजली धोखा दे जाये।

परिचय :-  हंसराज गुप्ता, लेखाधिकारी, जयपुर
निवासी : अजीतगढ़ (सीकर) राजस्थान
घोषणा पत्र : प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है।


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