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याद रखता है इंसा

विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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स्याही और तासीर, वक्त की छाप अमिट है,
मिलती रस धार जब, रंग जरूर बदलता है इंसा

बधाई सोच की गली, बहुत तंग दिखती सदा,
मजबूर सा वो किरदार, जुदा सा लगता है इंसा

यूं तो सभी मानते, खुद को वक्त का सिकंदर,
सराहे बिना और को, सिरमौर ही बनता है इंसा

दुनिया एक सभी की, फिर भी कुछ अलग है,
जरूरत मुताबिक ही, अब हाथ बढ़ाता है इंसा

बोलने का रोग पले, और नशा ही बनता चले,
वापस लौटता लफ्ज़ तो, परेशान करता है इंसा

चाय चुस्की चाह सी, चहल चुहलबाज जिंदगी,
ख्वाब हकीकत राह में, सुंदर पुल मांगता है इंसा

खुदा की नेमत बीच, जिंदगी जायके का तड़का,
तीखा कड़वा चटपटा मीठा, मर्जी चाहता है इंसा

जिम्मेदारी पिंजरे से बाहर झांकने फुरसत नहीं,
समझ और व्यवहार से, मुकाबला करता है इंसा

लिख पढ़कर देख सुनकर कमाई जाती डिग्रियां,
उम्रदराज सोच रहा, संस्कार कब कमाता है इंसा

खूबसूरत मुस्कान उम्मीद, डॉक्टर से रखते सभी,
हक नहीं बुजुर्ग का, पूछ परख भुलाता है इंसा

कशिश रंजिश गर्दिश में, बेबाक जारी हैं कोशिशें,
पटरी दुश्वारी देख, आसानी से घबराता है इंसा

सुना है पत्थर पे लिखा, लफ्ज़ कभी मिटता नहीं,
रेत पर लिखा लफ्ज़ तक, याद रखता है इंसा

परिचय :- विजय कुमार गुप्ता
जन्म : १२ मई १९५६
निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़

उद्योगपति : १९७८ से विजय इंडस्ट्रीज दुर्ग
साहित्य रुचि : १९९७ से काव्य लेखन, तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी द्वारा प्रशंसा पत्र
काव्य संग्रह प्रकाशन : १ करवट लेता समय २०१६ में, २ वक़्त दरकता है २०१८
राष्ट्रीय प्रशिक्षक : (व्यक्तित्व विकास) अंतराष्ट्रीय जेसीस १९९६ से
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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