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ये परोपकार कमाने वाले

सुरेश सौरभ
लखीमपुर-खीरी (उत्तर प्रदेश)
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 हाथ दिया वह रूक गये। ‘कोई सवारी नहीं मिल रही आज लिए चलो बाबू जी! मेरे विनयपूर्वक आग्रह को वे टाल न सके। आफिस के सहकर्मी जो ठहरे। मसाला भरा मुंह पीछे घुमाकर बैठने का इशारा किया। मैं उनके पीछे बाइक पर लद लिया। अभी चन्द दूरी ही चले होंगे..पिच पिच.पिच..गला खंगालकर बोले-नई गाड़ी है। डबल सवारी नहीं बैठाता, हां कभी-कभी हल्की-फुल्की डाल लेता हूं। और ट्रिपलिंग तो कभी नहीं?..हां हां बिलकुल नहीं… बाइक पर कभी भी तीन नहीं बैठना चहिए।… अब बैठ लिया तो क्या कहें, रपट पड़े तो हर गंगा वाला मेरा हाल था। साथ यह भी खयाल था कि मेरे पचास किलो वजन पर बेचारे ने तरस खाया है। अपने गन्तव्य पर पहुंच कर उन्हें ऐसे सलामी दी, जैसे बड़ी मुसीबत झेल, बेचारे ने दुश्मन का बार्डर पार करा के लाया हो मुझे।
कई दिन बाद मैं बस अड्डे पर, आफिस जाने के लिए, बस का इंतजार कर रहा था। मेरे थोड़ा आगे, खड़ी मेरे आफिस की दो नाजनीनें बस का इंजार कर रही थीं। सुबह सवारी मिलने में अगर थोड़ी भी देर होने लगे तो बॉस की गुस्से वाली आंखें बाघ की दहाड़ जैसी हर जगह दिखाई देने लगती हैं। बाबू जी आज सिंगल जा रहे थे। गाड़ी के प्रति बड़े केअरफुल हैं, लिहाजा बस का ही सहारा था, उन्हें रोक कर सुबह-सुबह उनकी एसिडिटी नहीं बढ़ाना चाहता था। अहा! बस आती दिखाई दी। मेरी बांछे खिल गईं। अरे! ये क्या बाबू जी उन नाजनीनों के पास रूक गये। अब वे एक-दूसरे से मुखतिब थे। लगा कुछ शीर्ष स्तर पर मंत्रणा हो रही है। फिर.. ऐसे नहीं? अरे ऐसे.. हां हां अब ठीक है फिर वैसे ही नाजनीनें बैठीं जैसे बाबू जी ने चाहा। दो वीरांगनाओं को लाद कर धीरोदात्त नायक वीरता पूर्वक चला जा रहा था। तब तक मेरी बस आ गई, बस से, उन तीन मूर्तियों को जाते हुए देख रहा था। नई गाड़ी के प्रति आत्मीय केअर फुल भाव रखने वाले बाबू जी की हल्की सवारियां देख, लग रहा था, परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं। और कोरोना दुम दबा कर बिलकुल भाग चुका है तथा मंकीपाक्स उनकी कर्मनिष्ठा और धर्मनिष्ठा को देख, उनके पास आने की कभी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है।

परिचय :-  सुरेश सौरभ
निवास : लखीमपुर-खीरी (उत्तर प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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