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स्वर्ण मृग आज भी सत्य

डॉ. अर्चना मिश्रा
दिल्ली

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स्वर्ण मृग वस्तुतः एक छलावा ही तो हैं, जो की आज भी प्रासंगिक हैं, वास्तविकता की आज कोई दरकार ही नहीं हैं, सब कुछ बाहरी आकर्षण ही हैं ओर आकर्षण भी ऐसा की इससे अछूता कोई रह ही नहीं सकता। सुबह से शाम तक कोई ना कोई किसी ना किसी को छल ही रहा हैं बातों में मिश्री घोल सुंदर सा लबादा ओढ़कर सिर्फ़ ठगा ही जा रहा हैं।

यूँही ज़िंदगी कई बार बेवजह के इम्तिहान लेती हें। टूटे हुए शाख़, दरख़्त भी कई बार मिलकर एक मुकम्मल जहां बना लेते हें। ज़िंदगी की राहों में ऐसे मुक़ाम आना भी लाज़मी हें वरना अपनी रूह से मुलाक़ात ही कहाँ हो पाती हें। कई बार आदतन या कई बार मजबूरी से हमें अपना माँझी दिख नहीं पाता ओर नतीजन हम रास्ता भटक ही जाते हैं। यह भटकाव ज़रूरी नहीं कि हमें गर्त की ओर ही ले जाए कई बार इसके नतीजे क्रांतिकारी भी होते हैं।
जैसे कि महात्मा बुद्ध को ही ले लीजिए वो घर से अचानक ही एक दिन निकल गए, जाना कहाँ था कुछ ख़बर नहीं थी, सिर्फ़ घोर अंधकार ओर भटकाव की स्थिति थी, लेकिन एक दिन उनके भटकाव को सही दिशा मिली जिसके फलस्वरूप हमें बोधदर्शन की प्राप्ति हुई। उनके भटकाव ने एक समग्रता को समाहित किया जो की सबके बस की बात नहीं थी राह से भटकाव कई बार एक नया दर्शन या जीवन दर्शन लेकर आती हें जिसके दिव्य प्रकाश से संसार जगमगा उठता हैं।

आज का वर्तमान युग ऐसा हे जहाँ की युवा पीढ़ी अपने मूल्य से भटक रही हे, मृग तृष्णा की ओर लालायित हें। सभी के जीवन का ध्येय निश्चित हें फिर भी उसके बावजूद हम अपने कर्तव्यों के प्रति जवाबदेह नहीं हें, सदेव मुँह नहीं मोड़ सकते हमारे भीतर सदेव दो शक्तियाँ रहती हे एक अच्छी एक बुरी, जब बुरी हावी होने लगती हे तो पथिक रास्ता भटक ही जाते हें। अब चयन हमारा होता है की हम तवज्जो किसे देते हैं।
हमें आवश्यकता है अपने साधनों को मजबूत बनाने की और उन्हें पूर्ण रूप से क्षमतावान बनाने के लिए उनकी ओर अधिक ध्यान देने की। यदि हमारे साधन बिल्कुल ठीक हैं, तो साध्य की प्राप्ति तो होगी ही। हम यह भूल जाते हैं कि कारण ही कार्य का जन्मदाता है। कार्य आप-ही-आप पैदा नहीं हो सकते हैं। जब तक कार्य बिल्कुल ठीक, योग्य और सक्षम न हों, कार्य की उत्पत्ति नहीं होगी। एक बार हमने यदि ध्येय निश्चित कर लिया और उसके साधन पक्के कर लिए, तो फिर हम ध्येय को लगभग छोड़ सकते हैं। हमें अपना ध्यान सिर्फ काम पर लगाना चाहिए।

हम सुख भोगने के लिए इस संसार में आएँ हैं, लेकिन मृग तृष्णा में उलझ के रह जाते हैं। सुख के सही स्वरूप को समझना चाहिए केवल इंद्रिय सुख की लालसा हमें अंधा कर देती हैं। देवताओं को सभी नतमस्तक होते हैं क्यूँकि उनके पास अपार वैभव, शुद्धता, ओर एक जीवन दर्शन हे हमें भी देवताओं के दिखाए मार्ग पर चलना चाहिए तभी एक श्रेष्ठ मनुष्य कहलाने के लायक़ हैं। पथ भ्रष्ट होके जीवन बर्बाद नहीं करना हैं हमें इस जीवन को वरदान की तरह जींना चाहिए।

परिचय :- डॉ. अर्चना मिश्रा
निवासी : दिल्ली
प्रकाशित रचनाएँ : अमर उजाला काव्य व साहित्य कुंज में रचनाएँ प्रकाशित।
आपका रुझान आरम्भ से ही हिंदी की ओर था अपने स्कूल व कॉलेज के दिनो से ही मेआपने लेखन का कार्य शुरू कर दिया था। आपने अधिकतर रचनायें कविता एवं लेख के रूप में लिखी है। आपने हिंदू कॉलेज दिल्ली से हिंदी विषय से ही अपनी बीए एमए किया तत्पश्चात् बीएड और एमएड किया। साथ ही साथ आपने काउंसलिंग एंड गाइडेंस का भी कोर्स किया।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।

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