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घर एक मंदिर

सरला मेहता
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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“घर” शब्द में जितनी मिठास भरी है, वह “मकान” में कहाँ। लोगों को अक्सर कहते सुना है, “अरे, बस अब घर पहुँच ही रहे हैं। आराम से घर पर ही सब सुकून से करेंगे।”
जहाँ तक घर के संदर्भ में मेरे संस्मरण हैं, कुछ हट कर हैं। बचपन बीता हवेली में। पढ़ाई हेतु देवास में दो कमरों का किराए का मकान। रहने वाले माँ और हम पाँच भाई बहन। ऊपर से आने वाले मेहमान अलग से। पढ़ाई के साथ सबका खाना व घर के अन्य काम। बड़ी बहन तो होती ही है जिम्मेदार। सामान बहुत कम, पंखा भी नहीं। सजावट के नाम को सबकी किताबें।
ब्याह के पश्चात सरकारी क्वार्टर्स मिलते रहे। एक ईमानदार पुलिसवाले के यहाँ सोफ़ा वगैरह के लिए सामान पैक करने के खोखों का उपयोग होता। उन्हें कपड़ो के कव्हर से सजा दिया जाता। एक दो साल हुए नहीं कि स्थानान्तर झेलो। बंजारों के माफ़िक़ सामान बाँध एक डेरे से दूसरे डेरे पर घूमते रहो।
हाँ, एक डराने वाला वाक़या आज भी याद करती हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शादी के बाद पहली बार शाजापुर जिले के कानड़ नामक कस्बे में रहना पड़ा। क्वार्टर के नाम भूतिया खंडहर था। एक कमरा फ़िर टूटा हिस्सा। उसके बाद किचन, जहाँ तक पहुँचने के लिए दीवार के सहारे ख़ुद को बचाते हुए जाओ। उसके बाद टॉयलेट वगैरह। वहाँ तक जाने के लिए बाहर से जाओ टॉर्च लेकर। वहाँ बिजली नहीं थी। साँझ होते ही पलंग पर रहो क्योंकि खूब सारे सर्प कभी भी कहीं से भी निकल आते। पति टूर पर तो बस भगवान का नाम लेते रहो।
बच्चे स्कूल जाने लायक हुए तो इंदौर आ गई। फ़िर किराए के मकान को घर बनाने की कोशिशें करते रहे। तभी जैसे तैसे छोटा फ्लेट बुक किया। आख़िर अपने घर का एहसास होने लगा।
एक बार पतिदेव को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, दंगों में चोंट के कारण। कहने लगे दो बेडरूम वाले फ़्लैट में ही जाऊँगा। एक सरदार जी ने अपने फ़्लैट की चाबी सौप दी। धीरे-धीरे छोटा फ़्लैट बेच कर पैसे चुका दिए।
उसके बाद २०१० में मेरे दामाद बेटी ने बड़ा घर बनाया। एक मंजिल पर आकर रहने लगे। लेकिन कहते हैं न कि योग संयोग भी कुछ होता ही है। अभी एक वर्ष पूर्व ही मेरे बेटे को लोन मिला। अब वह एक घर बनवा रहा है। हम सब अपने घर में शीघ्र प्रवेश करने वाले हैं।

छत की दीवारों की चुनाई
मकान बना देती है
आपसी रिश्तों की गरमाई
मकान को घर बना देती है
प्रेम की मिठास की पुताई
घर में चार चाँद लगा देती है
व्यवहार की नरमाई
सफर को सुहाना बना देती है

विश्वास की भरपाई
संबंधों की दीवार मिटा देती है
परस्पर सहयोग की रोशनाई
आपसी नेह जगा देती है
पिता के साए की परछाई
जिंदगी सहज बना देती है
माँ की ममता की गहराई
परिवार को एक बना देती है

कली से फूल की चटकाई
बगिया में बहार ला देती है
बच्चे की पहली कि किलकारी
घर को स्वर्ग बना देती है
शुभकामनाओं की दुहाई
जन्नतका अहसास भर देती है
प्रार्थना के स्वरों की सिमराई
घर को मंदिर ही बना देती है

परिचय : सरला मेहता
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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