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रिश्ते की डोर

पियुष कुमार
रोहतास (बिहार)
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मानव जीवन में रिश्तों का निर्माण प्राचीन काल में ही प्रारंभ हो गया था। रिश्तों का विकास ही समाज निर्माण का परिणाम है। यद्यपि यह मानव निर्मित विचारधारा अथवा भावना है, फिर भी ये परमात्मा या ईश्वर का उद्देश्य ही प्रतीत होता है। प्राचीन काल में जब मानव विकास के पथ पर यात्रा करना प्रारंभ किए तो सबसे पहला कार्य उनका समूह में रहना ही है।

मानव को समूह में रहने की आवश्यकता उनके भोजन को इक्कठा करने या बहुत बड़ी मात्रा में भोजन संग्रहण को लेकर हुई। क्योंकि भोजन कभी कभी ज्यादा मात्रा या बड़े जानवरों को मारने से प्राप्त हो जाती तो कभी-कभी बहुत दिनों तक भोजन के बिना ही रहना पड़ता था। इसलिए भोजन को संग्रह करना प्रारंभ किए जिसके लिए एक से अधिक लोगों की आवश्यकता हुई। धीरे-धीरे कुछ लोग समूहन करना प्रारंभ किए जिसमे एक भावना उत्पन्न होने लगी और वो भिन्न लिंगों को लेकर हुई। जब मानव साथ रहने का प्रण किए तब उसने पुरुष और महिला दोनो शामिल थे। साथ रहने के लिए कुछ नियम बनाए गए कि महिला घर का कार्य करेगी पुरुष शिकार करेंगे। एक महिला जो किसी पुरुष के साथ है तो अन्य पुरुष उससे दूर रहेंगे और पर्दा प्रथा या घर की आवश्यकता हुई। यहीं से पुरुष-महिला में विभेद हुआ और इनके बढ़ने से विलग कुल या शारीरिक बनावट से मेल होना प्रारंभ हुआ। जो आगे चल कर गोत्र बना, अपने खून से अलग शादी करने और अपनी जाति में शादी करने का प्रचलन शुरू हुआ।

कालांतर में यहीं रिश्तों में बदलते गए और रिश्तों के बढ़ने तथा भिन्न कुल और जातियों के बढ़ने से समाज का निर्माण हुआ। तब रिश्तें जो बंधे उसकी डोर केवल साथ रहने, मजबूत रहने, समाज निर्माण और भोजन प्राप्ति की थी। परंतु अब ये डोर काफी विकसित हो गई और इसमें स्वार्थ, लालच, घृणा, ईर्ष्या, अन्य के सुख से परेशानी जैसे रेशम को समाहित किया जा रहा, जिससे डोर काफी कमजोर होती जा रही और टूटने की प्रायिकता अधिक हो गई है।
रिश्तों की डोर, जो प्राचीन काल की धरोहर है, जो हमें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है उसको हम संरक्षित नहीं कर पा रहे हैं। इसका मुख्य कारण हमारी उच्च महत्वकांक्षा है। हम रिश्तों को केवल अपने फायदे और अपने नुकसान की तुला में तौल रहें हैं। यदि रिश्तों की महता को समाज के हित में देखें, यदि रिश्तों की डोर को भगवान के उद्देश्य का एक भाग मानें, यदि रिश्तों की डोर को पवित्र बंधन मानें और अपनी स्वार्थ नहीं बल्कि सबके हित की सोचें तो रिश्तों को कोई शक्ति दुष्प्रभावित नहीं कर सकती।
हर्षोल्लास के साथ निभाएं जा रहे रिश्ते पल में ही किसी एक शब्दों के तालमेल में आई कमीं से बिखर जा रहे हैं, आना जाना तो दूर एक दूसरे को देखना बंद हो जा रहा। यह एक बड़ी बीमारी है जो महामारी का रूप धारण कर ली है। इसका नुकसान व्यापक स्तर पर है। लोग मानव मूल्यों को भूलते जा रहे हैं जो आधुनिकता की सबसे बड़ी चुनौती है। मानव मूल्यों के विनाश का कारण धन, प्रौद्योगिकी, डिजिटलीकरण, संस्कृति पर पश्चिमी प्रभाव इत्यादि है, अंततः, यदि इस पवित्र डोर की मजबूती या संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया गया तो मानव और जानवरों में कोई अंतर नहीं होगा, रिश्ते की डोर का कमजोर होना विनाश का निमंत्रण पत्र है।
इसलिए हमें विनाश से बचना है तो धन के मूल्यों से ज्यादा रिश्ते की मूल्यों को समझना होगा, रिश्तों में दिलचस्पी लानी होगी, रिश्तों को बचाना होगा। यदि हम ये सोच रहे कि समाज का विनाश हो या संसार का उससे हमें क्या हमें तो अपनी घृणा और अपनी दुश्मनी से मतलब है… परंतु हमें यह ध्यान देना होगा कि हमारे बाद हमारी संतानें और उनकी संताने इसका कितना ज्यादा मूल्य चुकाएंगी कितना अकेलापन उन्हें झेलना होगा, कोई हिसाब नहीं।
इसलिए समाज के लिए नहीं तो आने वाली अपनी संतानों के लिए वर्तमान रिश्तों की डोर को मजबूती प्रदान करें और उनके संरक्षण में शत प्रतिशत योगदान दें।

परिचय :-पियुष कुमार
शिक्षा : स्नाकोत्तर (इतिहास)
पसंद : अपने विचारों को प्रकट करना, लिखना (किसी भी मुद्दों पर अपना विचार, समस्याओं से निपटने पर अपना विचार, सांसारिक कार्यों से अनुभव कर विभिन्न मुद्दों पर अपना विचार लिखना)
निवासी : गांव बहुआरा, डाकघर घोरडिहा, रोहतास, (बिहार)
शपथ : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मेरी यह रचना पूर्णतः मौलिक, स्वरचित और अप्रकाशित हैं।


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