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उपेक्षा का मलाल

सरला मेहता
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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सामान्य विद्यार्थियों के संदर्भ में शिक्षक कैसे हो ? विषय के संदर्भ में मेरी कहानी सरला के दिल से…

एक दशक पश्चात विद्यालय की एक बेच का मिलन समारोह चल रहा है। देश विदेश से शिरकत करने आए हैं… नामी गिरामी डॉ. पत्रकार इंजीनियर्स, प्रोफेसर्स, व्यापारी आदि-आदि। सारे सहपाठी आए हैं अपने परिवारों के साथ। मिलने मिलाने का दौर चल रहा है। पहचान नहीं पा रहे हैं अपने संगी साथियों को। मज़े की बात यह कि कइयों को बच्चों में उनके माँ-पापा की झलक मिल रही है।
शिक्षकों के साथ भी सब भूली-बिसरी यादें साँझा कर रहे हैं। कहाँ हैं ? कैसे है ? क्या चल रहा है ? सभी की उत्सुकताएँ बढ़ रही थी जानने के लिए।
सब बड़े आदर से अपनी पसंदीदा शिक्षिका मिसेस घोष से मिल रहे हैं। वे बहुत प्रसन्न नज़र आ रही हैं अपने पढ़ाए
हुए बच्चों की प्रगति जान कर। मिसेस घोष का कौन प्रशंसक नहीं था भला। अपने विषय को इतना रोचक बनाकर समझाती थी कि सुनकर ही सब याद हो जाता था। ऊपर से उनका हँसमुख आकर्षक व्यक्तित्व।
तभी एक कोने से गुलाबी कॉटन की सलीके से साड़ी पहने, लम्बी चोटी में मोगरे की वेणी लगाए एक शरीफ़ सी महिला सकुचाती हुई आकर मेडम के पैर छूती है। याद करते हुए वे पूछती हैं, “अरे तुम…क्या नाम… क्या कर रही हो ??? मैं तुम्हें पहचान नहीं पा रही हूँ।”
मिसेस घोष व्यग्रता से निहार रही है उस मासूम से चेहरे को और उसके सादगीपूर्ण सम्भ्रान्त पहरावे को।
“मैं, मैं सलोनी मेम, आपने मुझे बारहवीं तक पढ़ाया है।” शालीनता से जवाब देते हुए अपना उपहार मेम को थमा कर पुनः उनके पैर छूती है।
“अच्छा, तुम कक्षा में बहुत चुप रहती थी। तुम्हारे ज़्यादा दोस्त भी नहीं थे। मस्ती मज़ाक करते मैंने कभी नहीं देखा तुम्हें। बस एक… वह दुबली सी लड़की तुम्हारे साथ बैठती थी।”
“जी, मेम नीरजा। पर वह आई नहीं है, वह डीएसपी है न उसे छुट्टी नहीं मिली। मैं भी बमुश्किल आ पाई।”
घोष मेम की आँखें आश्चर्य से फैल जाती है, “अच्छा आ आ आ भई ऐसा क्या काम करती हो ?”
“इसी शहर की नई कलेक्टर हूँ मेम, सलोनी चटर्जी।”
सुनकर मिसेस घोष आत्म ग्लानि से भर जाती है। वे स्वयं को मन ही मन कोसने लगती है, “ओह ! काश मैं सभी विद्यार्थियों के साथ न्याय कर पाती। चुनिन्दा बच्चों को ही महत्व ना देती।” सलोनी हालाँकि पढ़ाई में अच्छी थी, दिखने में भी सामान्य व गरीब तबके की लगती थी। जवाब देने में भी झिझकती थी। हाँ, वह अपनी कठिनाइयाँ पूछने उनके पास अवश्य आती थी। लेकिन मिसेस घोष उसे इतना तवज्जो नहीं देती थी जितना आगे होकर वह दूसरे बच्चों की सहायता करती थी।
मिसेस घोष आगे बढ़कर सलोनी को आगोश में भर लेती है। उन्हें द्रोणाचार्य गुरु व उनके भील शिष्य की याद आ जाती है। और याद आई अपने बेटे पार्थ की भी। उसकी पढ़ाई व करियर बनाने के लिए उन्होंने जमीन आसमान एक कर दिया था। महँगी कोचिंग पर पानी की तरह पैसा बहाया किन्तु पार्थ कुछ कर नहीं पाया। ग्रेजुएशन के बाद अपने पापा का शॉपिंग मॉल सम्भालने लगा। मिसेस घोष सोचती है कि उनके कर्म की सज़ा ही बेटे को मिली है।
सलोनी को देख कर मेम को समझ में आया है, “सच ही है…हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और। मैंने इसकी कितनी उपेक्षा की। मैं इस हीरे की कीमत नहीं जान पाई। इसका मलाल मुझे हमेशा रहेगा, कभी भुला ना पाऊँगी।”

परिचय : सरला मेहता
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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