सुधीर श्रीवास्तव
बड़गाँव, गोण्डा, (उत्तर प्रदेश)
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अभी मैं सोकर उठा भी नहीं था कि मोबाइल की बज रही लगातार घंटी ने मुझे जगा दिया। मैंने रिसीव किया और उनींदी आवाज़ में पूछा -कौन?
उधर से आवाज आई- अबे! अब तू भी परेशान करेगा क्या? कर ले बेटा
ओह! मधुर, क्या हुआ यार?
कुछ नहीं यार! बस थोड़ा ज्यादा ही उलझ गया हूँ, सोचा तुझसे बात कर शायद कुछ हल्का हो जाऊं।
बोल न ऐसी क्या बात हो गई?
मैं तेरे पास थोड़ी देर में आता हूं, फिर बताता हूं। मधुर ने जवाब देते हुए फोन काट दिया।
मैं भी जल्दी से उठा और दैनिक क्रिया कलापों से निपट मधुर की प्रतीक्षा करने लगा। लगभग एक घंटे की प्रतीक्षा के बाद मधुर महोदय नुमाया हुए। मां दोनों को नाश्ता देकर चली गई।
नाश्ते के दौरान ही मधुर ने बात शुरू की। यार मेरी एक मित्र (गिरीशा) है। जिससे थोड़े दिन पहले ही आमने सामने भेंट भी हुई थी। वैसे तो हम आभासी माध्यम से एक दूसरे से बातचीत करते रहते रहे। कभी कभार उसके मम्मी पापा से भी बात हो जाती है।
फिर- तो समस्या क्या है?
बताता हूं न। समस्या नहीं गंभीर समस्या है। जब हम पहली बार मिले तो उसने मुझे जो सम्मान दिया, उससे मुझे थोड़ी झिझक भी हुई। क्योंकि वो मेरे पैर छूने के लिए झुकी तो कैसे भी मैं उसे रोक पाया। क्योंकि वो शायद मुझसे बड़ी ही होगी या हम उम्र होगी। वैसे भी अपनी परंपराएं भी तो बहन बेटियों को इसकी इजाजत नहीं देती। लिहाजा खुद को शर्मिंदगी से बचाने के लिए मुझे उसके पैर छूने पड़े, हालांकि इसमें कुछ ग़लत भी नहीं लगा।
अरे भाई तो इसमें ऐसा क्या हो गया जो तू इतना परेशान हैं। मैं थोड़ा उत्तेजित हो गया।
मेरी आवाज़ थोड़ा तेज थी, लिहाजा मेरी बहन लीना भागती हुई आई और आश्चर्य से पूछा लिया-क्या हुआ भैया, आप चिल्ला क्यों रहे हो?
मैं कुछ कहता, तब तक मधुर ने उसे अपने पास बैठा लिया और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोला-कुछ नहीं रे। तू परेशान मत हो, बस थोड़ी समस्या का हल निकालने की कोशिश में हैं हम दोनों।
लीना भी तैश में आ गयी, तो चिल्ला-चिल्ला कर हल ढूंढना है तो आप दोनों बाहर जाकर और जोर से चिल्लाओ, हल जल्दी मिल जाएगा। हम दोनों हड़बड़ा गये। हमें पता था कि हिटलर को गुस्सा बहुत जल्दी आता है। मधुर की स्थिति देख हमने भी शांत ही रहना ठीक समझा।
कुछ पलों बाद लीना ने मधुर से पूछा- क्या बात है भैया। हमें भी बताओ हो सकता है, शायद आपकी छुटकी कुछ हल दे सके।
मैंने देखा मधुर की आँखों में आँसू थे। जिसे उसने लीना से छुपाने की असफल कोशिश की।
लीना ने उसके आँसू पोंछे और कहा- ऐसी क्या बात है कि जो मेरे शेर भाई को गमगीन किए है।
मधुर ने संक्षेप में मुझसे कही बातें दोहरा दी और फिर आगे बताया कि वैसे तो हमारी बातें सामान्य ही होती रहती थी, मगर उसके भावों से यह अहसास जरूर होता था कि उसके साथ कुछ ऐसा तो घंटा या घट रहा है, जो उसे कचोट रहा है। मगर मर्यादा की अपनी सीमाएं होती हैं। लिहाजा खुलकर कभी पूँछ नहीं पा रहा।
गहरी लंबी सांस लेकर मधुर फिर बोला- मगर उस दिन जब हम मिले तो उसकी जिद को पूरा करने के लिए उसके घर तक जाना पड़ा।
वहां उसके परिवार में उसके पांच साल बच्चे के अलावा मम्मी पापा भी थे। जब मैंने उनके पैर छुए तो उन दोनों ने आशीषों का भंडार खोल दिया। यह सब अप्रत्याशित जरुर था, पर सब कुछ आँखो के सामने था। शायद गिरीशा और हमारे बीच बातचीत के सिलसिले की उन्हें जानकारी थी।
जलपान की औपचारिकताओं के बीच ही मैंनें अपने बारे में सब कुछ बता दिया। जो उन लोगों ने पूछा।
फिर हम सब भोजन के लिए एक साथ बैठे। खाना निकालते समय गिरीशा की आँखे नम थीं।
मैंने कारण जानना चाहा तो ज़बाब पिता जी ने दिया- मुझे नहीं पता बेटा कि तुमसे ये सब कहना कितना उचित है, लेकिन तुम्हें देख एक बार तो ऐसा जरूर लगा कि मेरा बेटा लौट आया है।
मैंने बीच में ही टोका- कहाँ है आपका बेटा?
यही तो पता नहीं बेटा। इसकी शादी के बाद जब वो इसे लिवाने इसकी ससुराल गया था तभी से आज तक न तो वो इसकी ससुराल पहुँचा और न ही घर लौटा।
मैं भी आश्चर्य चकित रह गया और सोचने लगा कि आखिर ऐसा क्या और कैसे हो सकता है।
पिता जी आगे बोले- दुर्भाग्य भी शायद हमारा पीछा नहीं छोड़ना चाहता था, लिहाजा पैसों की बढ़ती लगातार मांग से मैं हार गया और बेटी को उसके पति ने घर से निकालने के लिए हर हथकंडे अपना डाले। विवश होकर इसे वापस घर ले आया। तब से ये हमारे साथ है।
उनके स्वर में बेटी के भविष्य की निराशा शब्दों के साथ डबडबाई आंखों में साफ़ झलक रही थी।
हर हथकंडे पर मैं अटक गया, लेकिन खुद को संभालते हुए सिर्फ -ये तो बहुत ग़लत हुआ, धीरे से कहा
कुछ भी ग़लत नहीं हुआ भाई जी। मेरी किस्मत का दोष है। एम बी ए किया है मैंने, अच्छी कंपनी में जॉब करती हूं, जितना वो सब मिलकर कमाते हैं उतना मैं अकेले कमाती हूं। बस नौकरानी बनना मंजूर नहीं था। फिर अपने बच्चे के भविष्य को मैं दाँव पर नहीं लगा सकती। यही कारण है कि सधवा और विधवा दोनों का सामंजस्य बिठाने को विवश हूँ। बोलते-बोलते उसकी आवाज ढर्रा गई।
मैंने देखा किसी के गले से भोजन उतर नहीं रहा था। माँ जी तो फूट-फूट कर रोने लगीं।
इधर लीना की आँखों से भी आँसुओं की गंगा बह रही थी।
कुछ एक घंटे का वो प्रवास मुझे अंदर तक झकझोर गया। वापसी में जब मैंने मम्मी-पापा के बाद उसके पैर छूए तो वो एकदम छोटी बच्ची जैसे लिपटकर रो पड़ी। किसी तरह उसे समझा-बुझाकर मैं वापस चला आया।
तब से लेकर आज तक सामान्य बातें पहले की तरह होती आ रही हैं, बीच में पिता जी से भी बात हो जाती, मगर वो अपने हर दर्द को छुपाने की कोशिश लगातार करती रहती है।
और तबसे मैं दिन रात उसकी चिंता में परेशान रहता हूं, जैसे ये सब कुछ मेरे ही कारण हुआ है अथवा मुझे उसकी खुशी वापस लाने के लिए कुछ करना ही होगा।
हर समय उसका बुझा बुझा चेहरा सामने आ जाता है, उसकी आँखें जैसे कुछ कहना चाहती हैं, मगर क्या ये बताने को वो भी तैयार नहीं है। एकदम भूतनी सी वो मेरे सिर पर सवार अपनी खुशियों की दुहाई दे रही है और मैं असहाय हो कर घुट-घुटकर जीने के अलावा कुछ कर नहीं पा रहा हूँ।
उसके मम्मी पापा भी क्या करें, बेचारे असहाय से होकर जी रहे हैं, जो स्वाभाविक भी है। क्योंकि बेटे को खोने के बाद अब बेटी को खोना नहीं चाहते। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आखिर मेरे साथ ऐसा क्यों है? जबकि हमारा कोई रिश्ता नहीं है। जो है भी वो महज भावनाओं से है।
कुछ पलों के सन्नाटे को लीना ने कहा भैया- भावनाओं के रिश्ते खून के रिश्तों पर भारी होते हैं। रही बात गिरीशा जी के कुछ न कहने, सुनने कि तो मैं बताती हूं कि जब तक आप मिले नहीं थे, तब तक मित्रवत कुछ बातें उन्होंने आप से साझा किया होगा, शायद उससे उनके मन का बोझ कुछ कम हो जाता रहा होगा। लेकिन जब आप मिले, घर गए, उनके मम्मी-पापा के साथ उन्हें भी अप्रत्याशित सम्मान दिया, तब ये रिश्ता और मजबूत हो गया। जिसे आप रिश्तों के दायरे से ऊपर ही नहीं बहुत ऊपर मान सकते हैं।
वैसे भी आज के समय में जब लोग नमस्कार, प्रणाम की भी औपचारिकता मात्र निभाने में भी संकोच करने लगे हैं, तब किसी ऐसे शख्स के पैर छूना बहुत बड़ी बात है, जिससे आप कभी मिले न हों, बहुत बड़ी बात है, ऊपर से कोई महिला अगर किसी पुरुष के पैर छूने का उपक्रम मात्र भी करती है, तब सोचिए उसके मन में उस पुरुष के लिए क्या स्थान होगा। निश्चित मानिए एक पवित्र भाव और अटूट विश्वास ही होगा।
एक लड़की सब कुछ सहकर भी अपने माँ बाप भाइयों को किसी भी हाल में दुखी नहीं करना चाहती। इसीलिए अब वो आपसे ऐसी कोई बात नहीं करना चाहतीं, जिससे आपकी पीड़ा बढ़े, ये अलग बात है कि उसे भी पता है कि आप की पीड़ा दोनों स्थितियों में बढ़नी ही है। हां! एक बात बताऊं- सच तो ये है कि मुझे लगता है कि गिरीशा जी अभी भी बहुत कुछ अपने माँ-बाप से कुछ ऐसा छिपा रही हैं जो उनके साथ हुआ तो है मगर होना नहीं चाहिए था। शायद इसीलिए कि वे माँ बाप को तिल-तिल कर मरते नहीं देखना चाहतीं। इसमें उनका दोष भी नहीं है, कोई भी लड़की, बहन ऐसा ही सोचती है। मैं भी एक लड़की हूँ, बेटी हूँ, बहन हूँ, मुझसे बेहतर आप दोनों नहीं समझ सकते।
विश्वास बड़ी चीज है, जो स्वत: पैदा होता है, जबरन हो ही नहीं सकती। उनका आपसे मिलना,घर ले जाकर मम्मी पापा से मिलाना, बिना किसी हिचक के आपको पकड़ कर सबके सामने रोना, आपका उसके पैर छूना क्या है? महज विश्वास, जो कोई भी नारी सहज ही हर किसी के साथ नहीं कर सकती। जैसा कि आपने खुद ही कहा कि वो आपसे बड़ी हैं या छोटी, शायद उनके साथ भी ऐसा ही है। परंतु आप दोनों ने अपने अपने भावनाओं को जिस ढंग से प्रकट किया है, उससे भाई बहन की आत्मीयता साफ झलकती है।
ऐसे में अब आपके रिश्ते मित्रता से बहुत आगे एक पवित्र भावों से बंध गए हैं। तब ये उम्मीद मत कीजिए कि अब वे आपको असमंजस में डालेंगी या अपनी पीड़ा आपको बता कर आपको दुखी करेंगी।
मगर बहन! मेरे साथ ऐसा क्यों है?
आपके साथ नहीं हैं भैया। आप सोचिए, ये सिर्फ एक भाई के साथ है, एक भाई की पीड़ा है, भाई छोटा हो बड़ा हो, बहन के लिए सिर्फ भाई होता है, जिसके रहते वो खुद को शेरनी समझती है। आप समाधान की ओर जाना चाहते हैं और वो आपको पीड़ा से बचाना चाहती हैं। आप दोनों अपने सही रास्ते पर हैं। ऐसा इसीलिए है और एक बात बताऊँ, भाई बहनों का ये लुकाछिपी का खेल नया नहीं है।
अब मुझसे रहा नहीं गया तो मैं बोल पड़ा आखिर इसका कुछ हल तो होना चाहिए न छुटकी।
हल तो आप देने वाले थे न भैया! अब दीजिए, रोक कौन रहा है- लीना थोड़े शरारती अंदाज में बोली।
यार मेरा तो दिमाग चकराने लगा ,चल तू ही कुछ बता – मैंने हार मानने के अंदाज में कहा।
कुछ पलों के सब मौन हो गए।
मधुर ने लीना को संबोधित करते हुए कहा- तेरे पास इसका कुछ हल हो तो बोल
है न भैया! बस आप मुझे उनका नं. दीजिए और निश्चिंत हो जाइए, मैं उन्हें अपनी बातों से पिघला ही लूँगी और मेरा विश्वास है कि मैं सच सामने आ जाएगा। फिर सोचेंगे कि आगे क्या किया जा सकता है। उनके मम्मी-पापा को भी विश्वास में लेना होगा। क्योंकि एक बार तो शायद वे खुद को संभाल पा रहे हैं, दुबारा संभालना कठिन हो सकता है। ………. हम दोनों लीना को आश्चर्य से देख और सोच रहे रहे थे आखिर ये हिटलर इतनी समझदार हो गई।
क्या सोच रहे हो भाइयों! हिटलर पर भरोसा रखो, बस अब ये सोचो ये प्रश्न मेरी बड़ी बहन के भविष्य का है और आपको पता है, मैं हार मानने वालों में नहीं हूं-कहते हुए लीना भावुक हो गईं।
मैंने माहौल हल्का करने के उद्देश्य से मधुर से कहा- चल भाई मधुर नंबर दे दे हिटलर को। तेरे साथ ऐसा क्यों है, अब इसका जवाब मिल ही जायेगा। तेरी राम कथा का नया हनुमान जो तुझे मिल गया।
तीनों ठहाका मार कर हंस पड़े।
परिचय :- सुधीर श्रीवास्तव
जन्मतिथि : ०१/०७/१९६९
शिक्षा : स्नातक, आई.टी.आई., पत्रकारिता प्रशिक्षण (पत्राचार)
पिता : स्व.श्री ज्ञानप्रकाश श्रीवास्तव
माता : स्व.विमला देवी
धर्मपत्नी : अंजू श्रीवास्तव
पुत्री : संस्कृति, गरिमा
संप्रति : निजी कार्य
विशेष : अधीक्षक (दैनिक कार्यक्रम) साहित्य संगम संस्थान असम इकाई।
रा.उपाध्यक्ष : साहित्यिक आस्था मंच्, रा.मीडिया प्रभारी-हिंददेश परिवार
सलाहकार : हिंंददेश पत्रिका (पा.)
संयोजक : हिंददेश परिवार(एनजीओ) -हिंददेश लाइव -हिंददेश रक्तमंडली
संरक्षक : लफ्जों का कमाल (व्हाट्सएप पटल)
निवास : गोण्डा (उ.प्र.)
साहित्यिक गतिविधियाँ : १९८५ से विभिन्न विधाओं की रचनाएं कहानियां, लघुकथाएं, हाइकू, कविताएं, लेख, परिचर्चा, पुस्तक समीक्षा आदि १५० से अधिक स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित। दो दर्जन से अधिक कहानी, कविता, लघुकथा संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन, कुछेक प्रकाश्य। अनेक पत्र पत्रिकाओं, काव्य संकलनों, ई-बुक काव्य संकलनों व पत्र पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल्स, ब्लॉगस, बेवसाइटस में रचनाओं का प्रकाशन जारी।अब तक ७५० से अधिक रचनाओं का प्रकाशन, सतत जारी। अनेक पटलों पर काव्य पाठ अनवरत जारी।
सम्मान : विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा ४५० से अधिक सम्मान पत्र। विभिन्न पटलों की काव्य गोष्ठियों में अध्यक्षता करने का अवसर भी मिला। साहित्य संगम संस्थान द्वारा ‘संगम शिरोमणि’सम्मान, जैन (संभाव्य) विश्वविद्यालय बेंगलुरु द्वारा बेवनार हेतु सम्मान पत्र।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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