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निर्गुण ब्रह्म धरूँ

ज्ञानेन्द्र पाण्डेय “अवधी-मधुरस”
अमेठी (उत्तर प्रदेश)

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गोपी-उद्धव संवाद

संदेश है मोहन का
निर्गुण ब्रह्म धरूँ
अनुनय है मोहन का

मथुरा से आए हैं
बनि के इक योगी
उद्धव कहलाएँ हैं

कान्हा रस में डूबी
ना जानूँ कुछ भी
क्या खूबी मधुकर की

उड़-उड़ के है बूमे
गुन-गुन-गुन करते
रस चूसे औ झूमे

हम सगुण उपासक हैं
हम तो ना माने
यदुनंदन बाधक हैं

वो नैनों का तारा
कैसे हम भूलें?
है वो ही उजियारा

वाकी बंकिम चितवन
चित को भरमाए
है याही तो उलझन

ये कैसे हम कह दें ?
बैठा जो भीतर
बाहर कैसे कर दें ?

आती जब भी यादें
रास रचाने की
हैं करतीं फरियादें

हे निष्ठुर आ जाते
भूल गिले शिकवे
करतीं जी भर बातें

उद्धव का ज्ञान धरा
कुछ भी ना समझे
उनका सब राग हरा

परिचय :-  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय “अवधी-मधुरस”
निवासी : अमेठी (उत्तर प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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