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शहर ऐक कोना सा‌‌

संजय कुमार नेमा
भोपाल (मध्य प्रदेश)

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शहर ऐक कोना सा।
खो गया मैं मंजिलों की
अट्टालिका मैं,
बिछड़ गया मैं
भीड़ भरी जिंदगी में।‌
ना पूछे कोई खैर खबर,
ना मिले सगे संबंधी।
ना मिली चौपाल की बैठक।।‌‌
शहर ऐक कोना सा‌‌

कहां खो गई आम,
नीम, पीपल की छांव।‌‌
नहीं दिखता दूर-दूर परिंदा,
ना मुझे मिली इतराती
कोयल की कुहू कुहू की आवाज।।
ना मिले नीम, पीपल की
छांव में लहराते झूले।
शहर ऐक कोना सा।

शहर की अट्टालिका में
ढूंढ रहा अपनों को,
न मिले सगे संबंधी।‌‌
ना मुझसे कोई
पूछे खैर खबर।‌
शहर ऐक कोना सा।

ना बोले प्यार से,
भैया जय राम जी,
जय गोपाल जी।
निकला वह बाजू से,
बोला हाय गुड मॉर्निंग।।‌
शहर ऐक कोना सा।

ना दिखता सुबह
का सूर्य उदय,
ना सुनता पक्षियों
का कलरव,
ना मीठी कोयल
की कुहू कुहू।
ना मिला भोंरौ का गुंजन।
शहर ऐक कौना सा।

ना मिली माटी की
सोंधी खुशबू।
ना दिखता सूर्यास्त,
बस अब सुबह शाम
मोटर गाड़ी का शोर।।
शहर ऐक कोना सा।

अब मिली मुझे ऊंची
मंजिलों की अट्टालिका,
जिन्हें निहारूं, दिशा भटकूं
शहर ऐक कोना सा।

गली गली अट्टालिका के
बीचों बीच अपनों को ढूंढूं
कोई मिले, अपना सा।
जिसे गले लगाऊं
अपनी बात बताऊं।
अब मैं समझा
अपने को बेचारा सा।।
शहर ऐक कोना सा।

परिचय :- संजय कुमार नेमा
निवासी : भोपाल (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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