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हिजाब और बदलाव

प्रीति शर्मा “असीम”
सोलन हिमाचल प्रदेश
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औरतों को बस..
डराया जाता है।
कभी हिजाब और कभी
घुंघट की आड़ लेकर,
सभ्यता-संस्कृति का
पाठ पढ़ाया जाता है।
औरतों को बस…
डराया जाता है।

वह कुछ नहीं जानती।
यह समझा कर,
घर की चारदीवारी में
बैठाया जाता है ।

तुम्हारे यह करने …..से
तुम्हारे वह करने…… से
धर्म का नाश होगा ।
देवी की उपाधि देकर
पत्थर बनाया जाता है।

तुम बाहर निकली…… तो,
क्या-क्या ??? कहेंगे लोग।

चरित्र हीनता का
डर दिखाकर,
पर्दों के पीछे,
तुम बहुत कीमती……. हो।
कहकर…..
छुपाया जाता है।

औरतों को बस…
डराया जाता है।
फर्क इतना है कि
दिल से देखती है।
दुनिया दिमाग से
आंकती नहीं।
प्यार के लिए हर
किरदार को जी जाती है।
अपमान को भी
चिंता-सुरक्षा मान,
खुद को जानने की कभी
कोशिश करती ही नहीं।

हर किरदार में जीती है।
लेकिन औरत होना
भूल जाती हैं।
जब वह खुद को
नहीं समझती।
इसलिए हर
बात से डर जाती हैं।

शायद इसी डर को,
कभी हिजाब से
कभी घुंघट से,
पर्दो-दीवारों में
छुपा लेती हैं।

वह जीती है सबके लिए
और अपने आप के लिए
जीना भूल जाती हैं।

पुरुष समाज
बहुत उदारवादी है।
इसी दम पर वह
कभी स्कूल पढ़ने,
और कभी काम
पर जा पाती है।

जबकि वह भी ……
जानती है।
कितना सम्मान ..
कितना अपनापन।
वह अपने अस्तित्व को
वस्तु बना कर ले पाती है।

सदियों से अत्याचार
के आंकड़ों में,
वह ही क्यों
नजर आती है ।
औरतों को बस
डराया जाता है।

हम….. तुम्हारे….. अपने हैं।
इन्हीं शब्दों के जाल में,
अपने मतलबों के लिए
उलझाया जाता है।

अपने लिए अगर …….कहीं
वह सोचने लगी कि
वह भी इंसान है ।
इस डर के खौफ से ….
इसलिए उसे कदम-कदम
पर डराया जाता है।

खींच दी जाती है लकीरें।
बस उसे उसी दायरे में
चलाया जाता है ।

जो उठाती है ……
आवाज़।
सोचने लग जाती हैं …..
कि वह भी…… वजूद है।

उन्हें चरित्रहीनता की,
आवाज से खामोश
करवाया जाता है।
इतिहास…… गवाह है।
कि औरतों को बस…
डराया जाता है।

कुछ नहीं बदलता
औरत के लिए
वह हिजाब में हो
या घुंघट में …….कहीं।

उसकी लड़ाई तो
अपने वजूद से है।
जिसे वह समझी ही नहीं।

वह लकीरों पर
खुश हो जाती है।
पापा की लाडो-परी बन,
भाई के संरक्षण में,
दान की वस्तु बन
बड़ी इज्जत से
सौंप दी जाती है।

सदियों से औरत की
मानसिकता पर,
गुलामी के वह
हथौड़े चलते हैं।
तुम लड़की हो ….
यह ना करो
वो ना करो।
समाज-परिवार
की हदों में,
औरत के सांचे को
गढ़ने के लिए
निरंतर प्रहार चलते हैं।

चुपचाप सहती रहो…..
कोई सवाल ना करो।
जहां तुम सवाल …….
उठाओंगी।
बात किसी से छुपी नहीं।
तुम छुपा कर ही……
मार दी जाओगी।

अपनी इच्छाओं को
दायरे में रख,
दूसरे घर आ जाती है।
अपने फर्ज निभाती हुई
वह जानती है।
वह कितना सम्मान पाती है।

उसके बाद बेटो तक
सम्मान पाने के लिए,
लकीरों में बस….
लकीरों में बांट दी जाती है।
वर्चस्व प्रधान समाज का
डर बनाए रखने के लिए,
औरतों को बस समझा
कर डराया जाता है।

कुछ….. नपुंसक
सोच वालों द्वारा यह
डर बनाया जाता है।

वह जानते हैं जिस दिन
औरतें जान जायेंगी।
सभी किरदारों से पहले,
वह औरत है यह
पहचान जायेंगी।

उस दिन उन्हें हिजाबों की
जरूरत नहीं होगी।
घुंघट में कैद होकर उन्हें
किसी बुरी नजर की
फिक्र नहीं होगी।

सभ्यता तो पैदा ही
उनसे होती है।
चंद लुटेरों के कहने से,
किसी भी मानवीय धर्म की
हानि नहीं होगी।

हिजाब से बदलाव का
यह सफर औरत को
ख़ुद तय करना है।
उसे अपने वजूद को
तय करने के लिए
सहारो की जरूरत नहीं होगी।

परिचय :- प्रीति शर्मा “असीम”
निवासी – सोलन हिमाचल प्रदेश
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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