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अच्छा लगता है

विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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अपने अनुभव से जो कर पाता जीवन में,
देख सुन समझकर बस अच्छा लगता है।

देखकर दूसरों की कुछ उपलब्धि प्रगति
गूंगा ठगा सा रह जाना अच्छा लगता है।

कब कहाँ किसने क्या क्यों कैसे कहा था
हर वक़्त याद रख लेना अच्छा लगता है।

जरूरी कार्य ताकीद के बावजूद भी देखा
अनजाने की भूल कहना अच्छा लगता है।

संस्था समाज का ठेकेदार बनता है मनुज,
ठेकेदारी चाल बदल लेना अच्छा लगता है।

कथा व्यथा लहू में समाई शक्ति कहलाती
सूत्र सिद्धांत उपयोग बस अच्छा लगता है।

आध्यात्म और सिद्धि साक्ष्य अदभुत मिलते
आंखों देखा वृतांत सुनना अच्छा लगता है।

मां बाप गुरु सम्मान है किताब व्याख्यान में,
साक्षात प्रमाण दिखे कभी अच्छा लगता है।

नदी सदृश्य किरदार भी बहता रहा जमीं पर,
चुल्लू भर जल में श्रम गंध अच्छा लगता है।

चौकीदार सी चौकस निगाहों वाली परवरिश,
चौकीदारी चलन चौथेपन में अच्छा लगता है।

अकेले आना अकेले जाना अकेले का संघर्ष,
अकेले में घमासान सा वक़्त अच्छा लगता है।

रंगमंच पात्र जैसे संजीदगी सदा दिखाता रहा,
नए अभिनय चलन ‘विजय’ अच्छा लगता है।

लेखन सृजन हवा पानी वक़्त के गतिमान सा
सृजन की कदर ललक देख अच्छा लगता है।

साहस सांत्वना सहयोग समय पर दवाई जैसा
अदृश्य अपनत्व दूर सुदूर से अच्छा लगता है।

बसंत पंचमी माँ शारदे पूजा आराधना कृपा से,
सृजन बल के तार जुड़े रहना अच्छा लगता है।

परिचय :- विजय कुमार गुप्ता
जन्म : १२ मई १९५६
निवासी : दुर्ग छत्तीसगढ़

उद्योगपति : १९७८ से विजय इंडस्ट्रीज दुर्ग
साहित्य रुचि : १९९७ से काव्य लेखन, तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी द्वारा प्रशंसा पत्र
काव्य संग्रह प्रकाशन : १ करवट लेता समय २०१६ में, २ वक़्त दरकता है २०१८
राष्ट्रीय प्रशिक्षक : (व्यक्तित्व विकास) अंतराष्ट्रीय जेसीस १९९६ से
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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