भुवनेश नौडियाल
पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
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यह कहानी कल्पना पूर्ण तो है ही, पर कल्पनाओं की जंजीर तोड़ कर यह हकीकत का दर्पण दिखाती है। यह कहानी अचानक प्रकृति की गोद में सोए सोए मस्तिष्क पटल में अंकित हो गई थी। इसलिए अपनी कलम से इस कहानी को लिखने की कोशिश की है।
मैं अपने रोजमर्रा के कामों को समाप्त करके अपने आपको थका हुआ, और निद्रा देवी के आंचल में लिपट रहा था अर्थात नींद के आगोश में डूब रहा था, जैसे ही मुझे नींद की देवी ने अपने आंचल तले छुपा दिया, तो मैं अपनी कल्पना की दुनिया में गोते खा रहा था। मैं खुद नहीं जानता था, कि मैं कहां हूं वह तो जब नींद खुली तो पता चला कि मैं एक जंगल में हूँ या कल्पना की दुनिया में, कल्पना…. एक प्रश्न….? मन में इस प्रकार के प्रश्न प्रस्फुटित होते रहते हैं, पर आज अचानक यह प्रश्न मन में उदित हुआ, कल्पना…….यह सोच रहा था, कि पीछे से किसी ने आवाज दी रमन….. ओ रमन….. जैसे ही पीछे मुड़कर देखा, तो बड़े भाई को आते देखा।
मैं भी खड़ा होकर आगे बढ़ा तब तक भाई बहुत पास आ गए थे। लाल मुहं सांस उखड़ी हुई, गुस्से से डांटते हुए, तुम इस जंगल में क्या कर रहे हो, पूरा परिवार तुम्हें ढूंढ रहा है, और तुम यहां बैठे हुए हो, क्या ? घर नही चलना है। मैं कुछ नही बोला क्योकि भाई से बहुत डर लगता था। इस लिए बिना बोलो ही उन्ही के पीछे-पीछे चल दिया। अभी चार कदम आगे गए ही थे, कि पहाड़ी की ऊपर से चाचा जी ने आवाज लगाई कि तेंदुए ने गाय के बछड़े को पकड़ लिया है। यह सुनते ही ऐसा लगा कि पाँव तले जमीन खिसक गई हो। हम दोनों बहुत ज्यादा डर गए थे, क्योंकि जहां हम खड़े थे वह जंगली जानवरों का घर था। भाई ने पीछे मुड़कर मुझे देखा और कहा तुम मेरे आगे-आगे चलो में पीछे तुम्हारी रक्षा करता रहूंगा। हम दोनों ने अपने कदम तेज कर लिए थे, वहां घरवालों की स्थिति भी ठीक नहीं रही होगी। इस प्रकार मन में विचार कर रहा था, यह सब मेरे कारण ही हो रहा है, यदि मैं सोता नहीं तो ऐसा नहीं होता, मन व्याकुल था, सांस तेज चल रही थी, और जंगल का खालीपन हम दोनों को डरा रहा था, तभी मैंने भाई से कहा आपको कैसे पता कि मैं यहां हूं। भाई ने कहा अभी प्रश्न पूछने का समय नही है, हमें इस जंगल से जल्दी बाहर निकलना होगा। क्या पता पीछे से या आगे से कौन सा जंगली जानवर हमला कर दे, सिर्फ ऊपर वाले का ही सहारा है। इस कारण से हम दोनों भाई भगवान का नाम लेते चले जा रहे थे, बचपन में मां पिताजी से सुना था, कि जब संकट आए तब भगवान का नाम लेना चाहिए। वही हम दोनों भाई कर रहे थे। बडा भाई डांट भी रहा था और मुझे नादान समझकर समझा भी रहा था। मैं उनकी बातें ध्यान से सुन रहा था, और मन ही मन भी ऊपर वाले से विनती कर रहा था, कि जल्दी से घर पहुंच जाएं। तभी आसपास की झाडी में हलचल हुई, हम दोनों भाई और भी ज्यादा डर गए थे। तभी भाई ने जल्दी से नीचे पड़ी हुई लकड़ी को उठा लिया, और मुझे पत्थर की ओर इशारा किया। मैंने भी तुरंत बहुत सारे पत्थर उठा लिए कुछ तो जेब में भर लिए कुछ पत्थरों को हाथ में, यह किस प्रकार की स्थिति हमारे समुख थी। डर सोचने समझने की शक्ति को क्षीण कर देता है। यह कहावत सुनी ही होगी पर ऐसा होता ही है, यह अब जाकर समझ में आया। हम दोनों भाई करते भी क्या, यदि पीछे हटते तो समय साथ न था, और आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी, फिर भी हम दोनों ने हिम्मत जुटाकर आगे बढ़ने का निश्चय किया। तभी भाई ने संकेत दिया, मैंने तुरंत संकेत पाकर झाड़ी पर लगातार चार पांच पत्थर फेंके, अब झाड़ी में और भी अधिक हलचल होने लगी, डर के कारण गला सूख गया, मुंह से आवाज तक नहीं आ रही थी, चेतन होकर भी अचेतन का अनुभव हो रहा था, और दूसरी और आकाश को ढकने के लिए अंधकार ने अपनी चादर फैलाना शुरू कर दिया। अब हमें और भी चिंता सताने लगी, घर वालों का क्या हाल है यह तो ईश्वर ही जाने, हमने मन में पत्थर रखकर एक-एक कदम आगे बढ़ाना शुरू कर दिया, भाई ने डंडे को और भी कसकर पकड़ लिया। हम दोनों भाई एक-एक कदम फंक-फंक कर रख रहे थे। अब हम उस झाड़ी के सामने पहुंच चुके थे, जिस झाड़ी में बहुत हलचल हो रही थी, हम दोनों ने डरते-डरते उस झाड़ी पर हमला कर दिया, पर हमला इतना भयंकर था, कि वहां कोई भी जंगली जानवर रहा होगा वह दुम दबाकर भाग गया। हम दोनों भी वहां से इतना तेज भागे की जब तक घर न पहुचे तब तक भागते रहे भागते रहे….।
परिचय :- भुवनेश नौडियाल
पिता : स्व. श्री जवाहर नौडियाल
माता : मधु देवी
निवासी : पालसैण, पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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