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पिताजी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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सूरज की पहली किरण
उगने के पहले,
पूजा की घंटियों से जगाते
वो “पिताजी थे”
सम्पूर्ण वातावरण राम,
कृष्ण मय करते,
वो “पिताजी थे”

जीवों को बचाने में
खुद को आहत करते
वो “पिताजी थे”
ऊंची उड़ान भरते,
आंखों मे भविष्य के
सपने लिए
हमे ना गिरने की चिंता,
ना गिर के टूटने का डर,
क्योंकि, “पिताजी थे”

सपनों को सच
करने का हौसला,
आसमान की ऊंचाइयों को
निर्द्वंद छूने की ललक
जगाते, “वो पिताजी थे”

जिंदगी की राहें कभी
विकट बनी,
कभी ठोकर खाई,
पांवों को सहलाते
“वो पिताजी थे”

स्तब्ध हुए,
जड़ बन गया शरीर,
टूट के बिखरे एक दिन,
“वो पिताजी” ही थे

कहां से लाते हम,
वो हिम्मत वो हौसला
उनको समेटने की ताकत?
हम दिशा विहीन,
किंकर्तव्य विमूढ़
कैसे समेट पाते,
“वो पिताजी” ही थे

संतान का वियोग,
अपनों के बिछोह का मर्म
बिखरते रहे, टूटते रहे,
चल पड़े प्रभु से
मिलने की राह पर,
शरीर नश्वर, देह है मिथ्या,
आत्मा ही परमात्मा,
कि परिभाषा समझाते,
दे गए ये संदेश
आत्मा अजर है,
अमरहै, अखंड सत्य है
मैं हर जीव में हूं,
मैं प्रकृति में हूं,
मैं सृष्टि में हूं
मैं था, मैं हूं, में रहूंगा,
“पिताजी ही थे, हैं और रहेंगे… ।।

परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी
जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी
शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार)
निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक ने लेखन की प्रेरणा दी और विगत ६-७ वर्षों से अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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