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पारो

जुम्मन खान शेख़ बेजार अहमदाबादी
अहमदाबाद (गुजरात)
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 किसी स्टेशन पर रेलगाड़ी रुकी हुई थी, एक लड़का चाय की आवाज जोर-जोर लगाता हुआ आया, मैनें उससे एक चाय ली, चाय के पैसे देते हुए उससे स्टेशन का नाम पूंछा और चाय की चुस्की लेते हुए पारो (काल्पनिक नाम) के बारे सोचने लगा, वह बहुत ही सुंदर और अच्छे स्वभाव की लड़की थी, बचपन से कोलेज तक हम दोनों साथ में पढ़े थे, हम दोनों एक दूसरे को बहुत पसंद करते थे, में उससे बहुत प्यार करता था, मगर हम दोनों कभी एक दूसरे से प्यार का इज़हार करने की हिम्मत नहीं जुटा सके।
मेरी कोलेज की पढ़ाई पूरी होने के बाद मै आर्मी में लेफ्टिनेंट के पद पर भर्ती हो गया, ट्रेनिंग के दौरान छुट्टी ना मिलने के कारण मै काफ़ी समय तक गांव नहीं आ पाया, ट्रेनिंग के बाद मेरी पोस्टिंग जम्मू-कश्मीर में कर दी गई।
एक दिन गांव से ख़त आया दादी की तबियत ठीक नहीं रहती और तुम्हें बहुत याद कर रही, एक बार छुट्टी लेकर घर आ जाओ, मेरा स्टेशन आने वाला था उतरने की तैयारी करने लगा। स्टेशन से गांव दूर नहीं घर की तरफ चल दिया, सामान भी ज्यादा नहीं था, वैसे किसी को दूर जाना हो तो उस समय तांगे (बग्गी) की व्यवस्था हुआ करती थी। गांव के एक बगीचे के पास से गुजर रहा था तो कदम अनायास ही रुक गए, इसी बगीचे में बचपन में हम और पारो खेला करते थे, अब पारो कहां होगी क्या करती होगी यही सब सोचते हुए घर की तरफ आगे बढ़ गया, जैसे ही घर पहुंचा मुझे देखकर घर वाले खुशी के मारे फूले नहीं समा रहे थे, दादी की तो मानो हर बीमारी दूर हो गई हो।
दादी बोली बेटा मुसाफिरी में थक गया होगा, थोड़ा आराम कर ले, फिर नहाकर खाना खा ले, तुझे भूख भी लगी होगी, जैसे ही मैने खाया दादी ने मेरी शादी का राग छेड़ दिया। अब तू इतना बड़ा हो गया है, मेरी भी उम्र हो गई है, जीते जी अपने पोते को गोद में खिलाना चाहती हूँ, कई अच्छे रिश्ते आये हैं तेरे लिए बस तेरे आने का इंतजार कर रहे थे सब घर वाले।
इतनी ज़ल्दी भी क्या है दादी हो जायेगी, दादी बात को टाल कर मै गांव में निकल गया, दिमाग में पारो का ख्याल लेकर, वह गांव के जमींदार की लड़की थी, हमारे घर-परिवार की शानो-शौकत भी कम नहीं थी, गांव में कुछ पुराने दोस्त मिल गए, उन्होंने बताया पारो की शादी हो गई, अभी वो ससुराल में है। उनकी बात सुनकर मै अंदर ही अंदर टूट गया, मै उससे बहुत मुहब्बत करता था, अब मैनें शादी ना करने का फैसला किया। मगर दादी और परिवार वालों के सामने एक ना चली और मज़बूरी में मुझे शादी करनी पड़ी। मेरी शादी हो गई लड़की अच्छी थी, अब वो मेरी पत्नी थी, अब मै पारो को भूल जाना चाहता था, मेरा का कोई दोष नहीं था, मै उसके साथ कोई अन्याय नहीं करना चाहता था।
मेरी छुट्टी पूरी हो गई, आज मै वापस अपनी ड्यूटी पर जा रहा था, मेरी पत्नि भी मेरे साथ जा रही थी, परिवार के कुछ लोग मुझे स्टेशन तक छोड़ने जा रहे थे, मेरे बाबू जी भी साथ थे।
रास्ते में पारो उसके भाई के साथ सामने से आ रही थी, कुछ देर मैने रुककर उसके भाई पारो से बात की उसके भाई ने बताया पारो को उसकी ससुराल से लेकर आ रहा है, पारो ने मेरी पत्नि की तरफ इशारा करते हुए पूछा ये कौन है, मैने बताया यह मेरी पत्नि है, अभी-अभी हम दोनो की शादी हुई है, उसने मुस्कुराकर हम दोनों को शादी की मुबारक बाद दी, उसके चेहरे पर झूठी मुस्कुराहट साफ नजर आ रही थी, पारो तुम्हारी शादी कब कुछ पता ही नहीं चला। तुमको भी शादी बहुत बहुत मुबारक हो। तभी बाबू जी आवाज आई, तुम्हारी ट्रेन का समय हो रहा है। जी आया बाबूजी मै मेरे पिता को बाबू जी ही कहता था। मै पत्नि के साथ आगे बढ़ गया, कुछ दूर जाने के बाद पलटकर देखा तो पारो भी पलटकर देख रही थी, मानो कह रही हो अभी मत जाओ कुछ दिन और रुक जाओ, जाना तो मै भी नहीं चाहता था, पर जाना जरूरी था। अब मै पारो को भूलाकर मेरी पत्नि के साथ वफ़ादारी के साथ रहना चाहता था, काश पारो को भूल सकूं।

परिचय :- जुम्मन खान शेख़ बेजार अहमदाबादी
निवासी : अहमदाबाद (गुजरात)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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