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नीरू की जिद

जनक कुमारी सिंह बाघेल
शहडोल (मध्य प्रदेश)
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इस बार अर्धवार्षिक परीक्षा में नम्बर क्या कम आया कि नीरू पूरी तरह से जिद पर उतारू हो गई। कहने लगी कि मुझे तो दीदी वाला ही रूम चाहिए। दूसरे रूम में बाहर के शोर शराबे में पढ़ाई नहीं हो पाती। मुझे तो यही वाला रूम चाहिए।
चारू प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रही है उसे किसी तरह का व्यवधान न हो इसलिए एकान्त कमरा दे दिया गया था।
बार-बार समझाने के बाद भी जब नीरू नहीं मान रही थी तो नंदिता को अचानक उसकी और भी पुराने जिदें याद आने लगीं। सोचने लगी- इसे बार-बार हर बार दीदी की ही चीजें क्यों चाहिए?
खीझ भरे मन में अनायास ही अतीत के पन्ने पलटने शुरू हो गए। जब अपने जन्म दिन पर उसने फ्राक के लिए जिद कर लिया था।
बोलने लगी थी माँ मुझे भी अपने जन्म दिन में दीदी जैसी ही फ्राक चाहिए।
नहीं बेटा! तुम्हारे लिए उससे भी अच्छी फ्राक आएगी। दीदी की फ्राक तो पुरानी हो गई है।
नंदिता नीरू को समझा रही थी और सोच भी रही थी कि नीरू कहीं जिद पर उतर आई तो ऐसी फ्राक अब बाजार में मिलती भी है या नहीं।

नहीं! मुझे तो दीदी जैसी ही फ्राक चाहिए। पांच साल की नीरू जिद पर अड़ गई।
तब मैं नीरू और चारू को लेकर शहर में रेडी मेड की पूरी दूकान छान मारी थी मगर दीदी जैसी फ्राक नहीं मिल पा रही थी।
बार-बार मैं नीरू को समझाती रही, दूसरी और भी सुन्दर फ्राक दिखाती रही पर नीरू जिद पर जो अड़ी थी तो अड़ी थी।
नहीं! मुझे तो दीदी जैसी ही फ्राक चाहिए।
तब मैंने ही माथा पच्ची करना बन्द कर दिया था क्योंकि मुझे पता था कि अगर नीरू को जबरदस्ती दूसरा फ्राक दिलवा भी दूंगी तो वह पहनना तो दूर हाँथ भी नहीं लगाएगी।
तब मैंने जाकर उसी तरह का कपड़ा लिया था और खुद चारू के फ्राक जैसी डिजाइन का फ्राक सिल दिया था।
मेंरे द्वारा सिला हुआ ही फ्राक पहनकर बाल मन नीरू तब खुशी से नाच उठी थी। पहले तो मैं इस बाल हठ से काफी खीझ गई थी पर उसकी खुशी देखकर मेरे मन में भी मई की पिघला देने वाली गर्मी में भी दीपावली के सैकड़ों दिए जगमगा उठे थे।
अभी तक उसकी जो छवि नंदिता के मन में आल्हाद पैदा कर रही थी वही आज……

अब तो ये बड़ी हो गई है। अब तक तो इसे समझ आ जानी चाहिए। इसे दीदी की ही चीजें क्यों पसंद आती है?
नहीं! इस बार इसकी जिद बिल्कुल भी पूरी नहीं करनी है। क्या पता उसकी यही जिद कभी चारू के भावी जीवन के लिए ही भारी न पड़ जाए।
नहीं ! मैं माँ हूं । मैं ऐसा कभी नहीं होने दे सकती। सोचते हुए नंदिता दृढ़ता के साथ बोली-चारू ! तुम इसी रूम में पढ़ाई करोगी और नीरू अपने रूम में।
“नाच न जाने आंगन टेढ़ा”।
बार-बार नीरू नहीं चलेगी।

परिचय : जनक कुमारी सिंह बाघेल
पति : श्री गोपाल सिंह बधेल
पिता : श्री अयोध्या सिंह गहरवार
माता : श्री मती नैनवास कुमारी सिंह गहरवार
जन्म तिथि : १२ /०१/१९६०
जन्मस्थान : मऊगंज (रीवा म. प्र.)
निवासी : पाली रोड शहडोल (मध्य प्रदेश)
संतति : श्रीमती सोनल सिंह चंदेल, श्री मती श्रुति सिंह तोमर
शिक्षा : बी.ए.एल.एल.बी., एम. ए. हिंदी, बी.ई.डी., संगीत गायन में डिप्लोमा।
व्यवसाय : व्याख्यता हिंदी, अध्यापन कार्य–संस्कृत (सरस्वती शिशुमंदिर उ. मा. वि. भोपाल (म. प्र)
प्रकाशित कृतियां : सरल–सरस गीता (श्री मद् भगवत गीता १८ अध्याय संलग्न गीता रस), पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित विविध रचनाएं : कविता, कहानी, दोहा, लघु कथा, संस्मरण आलेख यात्रा वृत्तान्त इत्यादि।
प्रकाशाधीन रचनाएं : १- दो काव्य संकलन, २- कहानी संकलन ३- दोहा संकलन ४- महाभारत एक कथा (अपूर्ण) पद्य
साहित्य के क्षेत्र में प्राप्त उपलब्धियां :
१ निवंध लेखन प्रतियोगिता लेखिका संघ भोपाल में प्रथम एवं द्वतीय पुरत्कार एवं प्रमाण प्राप्त। संस्मरण लेखन प्रतियोगिता लेखिका संघ भोपाल द्वार तृतीय स्थान प्राप्त।
२ लेखिका संघ भोपाल द्वारा दोहा लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरष्कार प्राप्त।
३ हिन्दी / बघेली दोहा संसार में प्रतिदिन दोहा लेखन प्रतियोगिता में तृतीय श्रेणी श्री सम्मान प्राप्त।
४ संचालक के रूप में लेखिका संघ म. प्र. भोपाल द्वारा सम्मानित।
५ साहित्यिक मित्र मंडल में साप्ताहिक कहानी लेखन प्रतियोगिता में दो बार उत्तम लेखन सम्मान।
६ विभिन्न प्रतियोगिताएं कराने के लिए लेखिका संघ भोपाल द्वारा प्रसस्ति पत्र प्रदान किया गया।
७ आरिणी एफ बी समूह द्वारा लघुकथा वाचन एवं का काव्य पाठ के लिए प्रमाण पत्र प्रदान किया गया।

घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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