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दहेज़ एक कुप्रथा

आशीष तिवारी “निर्मल”
रीवा मध्यप्रदेश
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लिखा नही इस विषय में निर्मल, लिखना बहुत ज़रूरी है
सच बोलो ऐ दहेज़ लोभियों क्या दहेज़ लेना मजबूरी है?
न जाने कितने ही घर बर्बाद हो रहे दहेज़ की बोली में
बेमौत मर रही कितनी ही बेटियाँ, बैठ न पाईं डोली में।

पिता के नयनों में आंसू है, बेटी के हाथ पीले कराने में
कितनों के जोड़े हाथ, पैर पड़े, शर्म आती है बतलाने में।
घर गहने, खेत, खलिहान बिके इस दहेज़ की बोली में
बेमौत मर रही कितनी ही बेटियाँ, बैठ न पाईं डोली में।

दहेज़ लोभी समाज की हैं यह कितनी भयावह तस्वीरें
बिखर चुके कई परिवार यहाँ और फूट रही हैं तकदीरें।
पढ़े-लिखे, शिक्षित जवान, क्यूँ बनते आज भिखारी हो
दहेज़ मांगने वालों तुम समाज की गंभीर बीमारी हो।

जिस पर गुजरे वो ही जाने, बात नही है यह कहने की
इतना मत माँगो दहेज़ कि सीमा टूट ही जाए सहने की।
इसी दहेज़ के चलते शायद पति-पत्नी मे तना तनी है
बेटी कहकर बहू ले आने वाली सासू माँ हैवान बनी है।

काग़जी टुकड़ो की ख़ातिर कितनी रार मचाई जाती है
कितनी ही बेकसूर बहुएँ बलि वेदी पे चढ़ाई जाती हैं।
मानो मेरा कहना दहेज़ लोभियों का इतना प्रबंध करो
जेल मे डालो इनको व इनके घर बेटी ब्याहना बंद करो।

परिचय :- आशीष तिवारी निर्मल का जन्म मध्य प्रदेश के रीवा जिले के लालगांव कस्बे में सितंबर १९९० में हुआ। बचपन से ही ठहाके लगवा देने की सरल शैली व हिंदी और लोकभाषा बघेली पर लेखन करने की प्रबल इच्छाशक्ति ने आपको अल्प समय में ही कवि सम्मेलन मंच, आकाशवाणी, पत्र-पत्रिका व दूरदर्शन तक पहुँचा दीया। कई साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित युवा कवि आशीष तिवारी निर्मल वर्तमान समय में कवि सम्मेलन मंचों व लेखन में बेहद सक्रिय हैं, अपनी हास्य एवं व्यंग्य लेखन की वजह से लोकप्रिय हुए युवा कवि आशीष तिवारी निर्मल की रचनाओं में समाजिक विसंगतियों के साथ ही मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण, भारतीय ग्राम्य जीवन की झलक भी स्पष्ट झलकती है, इनकी रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण विविध पत्र-पत्रिकाओं एवं दूरदर्शन-आकाशवाणी के विविध केंद्रों से निरंतर हो रहा है। वर्तमान समय पर हिंदी और बघेली के प्रचार-प्रसार में जुटे हुए हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। इस आलेख में व्यक्त किये गए विचार मरे स्वयं के हैं। 


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