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हार और जीत

सुरेश चन्द्र जोशी
विनोद नगर (दिल्ली)
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हारना किसे अच्छा लगता है और जीतना किसे बुरा लगता है किसी को नहीं | तो जीतकर दिखाना यदि कोई वंश हन्ता है उससे | यदि किसी ने तुमसे तुम्हारा स्वजन छीन लिया है तो तुम उसके पराक्रम छीनने का साहस न करके अपनों से ही उलझने में स्वयं को महाक्रमी समझते हैं, तो क्या कहा जा सकता है ? आपको प्रगतिशील तब माना जाता जब अपनी प्रगति के आगे हन्ता को कहीं टिकने नहीं देते | उसी के संबंधियों के आगे नतमस्तक होकर स्वजनों के पराजय की कामना करने का तात्पर्य तो सायद स्वजनहन्ता की पंक्ति में ही खड़ा हुआ माना जाता है, इसमें कितनी बुद्धिमत्ता कही जा सकती है | जीवन में रूखापन तुलनाओं से आता है, और बिना तुलना मजा भी कहाँ आता है ? जरूरी है तुलना करना पर उस तुलना की वजह से हीन भावना या अहंकार नहीं आना चाहिए | प्रेणादायक तुलना करना बहुत अच्छी बात है, परन्तु किसी को देखकर या सुनकर सिर्फ खुद को ज्यादा उत्तम समझने की
गलती कभी नही करनी चाहिए | बाकी गलत सोच और गलत अनुमान मनुष्य को हर रिश्ते से भ्रमित कर देता है |
बात समझने वाली है समझो तो जानो हारना तब आवश्यक हो जाता है जब लड़ाई अपनों से हो और जीतना तब आवश्यक हो जाता है जब लड़ाई अपने से हो।
सर्वप्रथम अपने स्वभाव की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता है, अपने दोषों को दूर करके आपको अपना स्वभाव इस प्रकार का बनाना है कि वह हर परिस्थिति के अनुकूल कार्य कर सके, जब तक आप ऐसा नही करेंगे तब तक आप जिएंगे तो सही, मगर हँसते हँसते नहीं रोते झिखते, आपका कायकल्प हो ही नही सकता।
विद्वान का बल विद्या और बुद्धि है, राष्ट्र का बल सेना और एकता है, व्यापारी का बल धन और चतुराई है, सुंदरता का बल युवावस्था है, पुरुष का बल पुरुषार्थ है, बच्चो का बल रोना है, दुष्टों का बल हिंसा है, मूर्खो का बल मूर्खता में रहना है…और भक्त का बल ईश्वर की कृपा है।
आपका आज्ञाकारी स्वभाव ही दुनिया की बहुत बड़ी पूंजी है कृपा इसे क्रोध की ज्वाला में नष्ट न करें, जीवन कुछ कर गुजरने के लिए है इस पर जी जान से जुट कर निश्चित लक्ष्य को सही रूपरेखा दे।
याद रखिये कुकर्मी का जब बुरा वक्त आता है तब दुनिया का कोई भी अर्थ उसे बचा नही सकता अतः इतना अवसर अवश्य दें कि समाज दुनिया एक बार अवसर अवश्य प्रदान कर सके ।
अपनों से जीत जाना एक सजा है और अपने को जीत जाना एक मजा। आपकी वो जीत किसी काम की नहीं जो अपनों को हराने के बाद प्राप्त हुई है और आपकी वो हार भी जीत है जो अपनों के लिए स्वीकार करली जाती है।
इस दुनिया में अगर लड़ने लायक कोई है तो वो आप स्वयं हो। जो व्यक्ति स्वयं से लड़ना सीख जाता है, निश्चित ही वह अन्य लड़ाईयों से, व्यर्थ के झंझटों से और दुनिया की कष्ऐ से बच निकलता है।
अपनी उस विचारधारा से लड़ो जो अपनों से मेल नहीं खाती, अपने उस अहंकार से लड़ो जो अपनों के सामने झुकने नहीं देता और अपनी उन कमजोरियों से लड़ो जो तुम्हें अपनों के सामने कमजोर बना रही है।
मैं करने वाला हूँ, जब तक यह भाव रहेगा आपकी चिंता अशांति मिटने वाली नही है। मैं करने वाला हूँ, इस भाव मे ही आपका अहंकार है और जहां अहंकार है वहां मोह है क्रोध है विषमता है दुख है द्वेष है अशांति है।
जब वह परमात्मा करने वाला है, यह भाव आता है तब आपका अहंकार हट जाता है और अहंकार हटते ही सब उलझने अशांति पाप पुण्य शोक मोह भय क्रोध सब हट जाता है।
हमारा अहंकार ही हमारी इस वास्तविकता से हमें दूर करता है, जब तक मैं है तब तक ही तू भी है और जब तक मैं और तू है तब तक मोह क्रोध द्वेष तुलना हम मे भरी रहेगी जो हमे अशांत और परमात्मा से अलग करती है।
एक मिनट की सफलता बरसों की असफलता की कीमत चुका देती है…!
कोई भी दुःख हमारे भविष्य को संभालने के लिए आता है हताश होकर अपने और परिवार को दुःखी कभी न करे हर दुःख उज्ज्वल भविष्य का रूप है बस आप निर्दोष हो, निर्दोष की आत्मा ब्रह्माण्ड से होकर प्रभु तक पहुंच जाती है, हम इतने सयाने नही हुए की परमपिता परमात्मा के इशारे समझ सकें |
सबसे पहले अपनों को पहचानो ओ हैं कौन अपने क्या जिनसे खून का रिश्ता है वे ही अपने हैं, कहीं खून के रिश्ते यदि खून पीना पसंद करते हैं |और दूसरे जिन्हें आप गैर समझते हैं आपके हितों का ध्यान रखते हैं ओ कौन हैं? उन्हें भी या उन्हें ही अपना समझने में कोई हानि नहीं है, उन्हें ही अपना क्यों मानें जो हमें मिटने का सपना देखते रहते हैं |

परिचय :- सुरेश चन्द्र जोशी
शिक्षा : आचार्य, बीएड टीजीटी (संस्कृत) दिल्ली प्रशासन
निवासी : विनोद नगर (दिल्ली)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।

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