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मित्रता

सुरेश चन्द्र जोशी
विनोद नगर (दिल्ली)
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आत्मीयता के परस्पर अंतर्वैयक्तिक बंधन से बंधी हुई मित्रता की अवधारणा उसके स्वरूप के पक्ष एवं सिद्धांतों का प्रतिपादन मित्रता को लेकर किया गया है। संसार के मुक्त अध्ययनों व विवेचनों में देखा गया है कि समीपत: आंतरिक संबंध रखने वाले व्यक्ति अधिक प्रसन्न रहते हैं। हिंदी भाषा के प्रसिद्ध आलोचक रामचंद्र शुक्ल मित्रों के चुनाव को सचेत कर्म बताते हुए लिखते हैं कि:- “हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए जिनमें हम से अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हों, मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्य- निष्ठ, जिसमें हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें, और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा।
सच्ची मित्रता का ऐसा एक जीवंत उदाहरण अगर संसार में प्रस्तुत हुआ है तो कृष्ण सुदामा का है। कहाँ द्वारकाधीश और कहां अकिंचन ब्राह्मण दरिद्र सुदामा। प्रभु ने मानव रूप में जन्म ही इसी उद्देश्य से लिया था कि मानवीय गुणों को उजागर करने के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हुए धनवान व निर्धन के भेद को मिटा कर अपने आपको मित्र मित्रता की कसौटी पर विशुद्ध स्थापित करने के लिए।
“मैं नरेश नहीं सुदामा प्रेम का भूखा हूंँ लालसा से परिलिप्त नहीं भावना प्रधान गुणों का ग्राही हूँ, वस्तुतः यही मित्रता की पराकाष्ठा है। मित्रता किसी सुख साधन के लिए लालायित नहीं हृदय का हृदय से बना धरातल पर अति अन्य सभी संबंधों से महानता की स्थिति है। उदाहरणार्थ जहाँ सुरेश, सुनील की बात को महत्व ही नहीं, अपितु सम्मान प्रदान करता है। तथा संजय अगर किसी बात का समर्थन कर रहा है वहाँ पर सुरेश-सुनील के विरोध का न किया जाना संशोधन को प्रस्तुत कर सहमति प्रसन्नता पूर्वक बनाए जाने का निष्कर्ष तीनों निकाल लेते हैं इसे मित्रता कहते हैं। परस्पर मिले अथवा नहीं मिले, मिलने पर भी नहीं मिले, न मिलने पर मिले इत्यादि भाव विचार कभी भी उत्पन्न नहीं होना ही मित्रता कहलाता है। हमारी मित्रता केवल आपसी सम्मान, एक दूसरे के प्रति स्वच्छ हृदय वाली है और शायद ऐसे ही होनी भी चाहिए।मित्रता के व्यवहारिक पक्ष को प्रबल होना चाहिए।
कहा गया है कि न कोई किसी का मित्र है, नहीं शत्रु व्यवहार से ही लोग मित्र एवं शत्रु बन जाया करते हैं :-
न कश्चित् कश्यचिन्मित्रं ,न कश्चित् कस्यचित् रिपु:।
ब्यवहारेण जयन्ते, मित्राणि-रिपवस्तथा।।
पुत्र वही है जो पिता का भक्त है, पिता वही है जो पोषक है, मित्र वही है जो विश्वास पात्र है, पत्नी वही है जो हृदय को आनंदित करे :-
ते पुत्रा ये पितुर्भक्ता:, स: पिता मस्ती पोषक:।
तन्मित्रं यत्र विश्वास:, सा भार्या या निवृति:।।
एक मित्र हमेशा अपने दूसरे मित्र के दूर व्यसनों को दूर करता है, तथा मित्र के स्वास्थ्य के प्रति सजग रहता है। जैसे :- मित्र सुशील ने “कैल्शियम” बढ़ाने के लिए “चूना” सेवन का सुझाव दिया था, जो अविस्मरणीय है। क्योंकि मित्र की परीक्षा दूर्व्यसन एवं आपत्ती (दुख) के समय में ही होती है, योद्धा की परीक्षा युद्ध के समय होती है, सेवक की परीक्षा मालिक के साथ अच्छे व्यवहार से होती है, दानी की परीक्षा दुर्भिक्ष काल में यानी अकाल पड़ने पर होती है। व्यसने मित्र परीक्षा भवति शूर- परीक्षा रणाङ्गणे।
विनये भृत्य परीक्षा, दान परीक्षा च दुर्भिक्षे।।
किसी महत्वपूर्ण कार्य पर भेजते समय सेवक की पहचान होती है। दुख के समय बंधु-बांधवों की पहचान होती है। विपत्ति के समय मित्र की पहचान होती है। तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा (पहचान) होती है।
जानीयात्प्रेषणे भृत्यान्, बान्धवान्व्यसनागमे।
मित्रं हि आपत्ति कालेधन, भार्या च विभवक्षये।।
इस प्रकार मित्र की व्याख्या करने के पश्चात् या मित्रता के उद्देश्य पर चिन्तन आदि करने के बाद निष्कर्ष तौर पर कहा जा सकता हैं कि मित्रता वस्तुतः बहुत बड़ी अहम होती है। अतेव मित्रता करने से पहले अपना विवेक जागृत अवश्य रखा जाना ही श्रेयस्कर होता है।।

परिचय :- सुरेश चन्द्र जोशी
शिक्षा : आचार्य, बीएड टीजीटी (संस्कृत) दिल्ली प्रशासन
निवासी : विनोद नगर (दिल्ली)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।

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