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हमर गांव सुघ्घर गांव

खुमान सिंह भाट
रमतरा, बालोद, (छत्तीसगढ़)
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जिसकी गोद में मेरा बीता है बचपन,
जिसकी सेवा के लिए अर्पण है मेरा तन-मन-धन।
जिसके नीर का हर एक बूंद अमृत
और अन्न का हर एक कण छप्पन भोग है
मेरे लिए वही मेरा बैकुंठ और वही देवलोक है।
जिसका हर एक चौंक मेरा चार धाम है,
मुझे गर्व है कि मेरा जन्म भूमि
पावन रमतरा ग्राम है

स्वच्छ , सुगंधीत व ताजी हवा गांव की ओर अनायास ही खींच लाती है। ग्राम वासियों का आपसी प्रेम और भाईचारा की भावना की तो बात ही निराली है। जिस प्रकार फूल बगीचे की शोभा पहले है और डालियों की शोभा बाद में है ठीक उसी प्रकार यहां के निवासी जाति, धर्म और ऊंच- नीच की नहीं बल्कि इंसानियत की शोभा पहले है।
तीन सौ परिवारों के १६५० लोगों को अपनी गोद में आश्रय दिया हुआ हमारा गांव यहां आजीविका का मुख्य साधन कृषि है, और कुल जनसंख्या के आधे से अधिक लोग कृषि कार्य पर निर्भर है। यहां की ईष्ट देवी मां शीतला हैं, यहां सर्वजन एकजुट होकर अपने आराध्य की विधिवत और पौराणिक तौर तरीकों से आराधना करते हैं। यहां के लोगों द्वारा लोक संस्कृति को बचाने में दिए गए योगदान को अद्वितीय कहें तो यह अपने आप में अतिश्योक्ति न होगी क्योंकि हमारे ग्राम सन् १९७५ से ही लोक कला ग्राम के नाम से अपने अंचल में ख्याति लिए हुए हैं। यहां पर निवास करने वाले सभी बच्चों से लेकर बूढ़ों में अनेकों प्रतिभाएं व कला विद्यमान है जो समय समय पर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया करते हैं ।
सूत्रो से ज्ञात होता है कि आजादी के पहले से ही पहली से पांचवीं कक्षा तक की पाठ शाला संचालित है शिक्षा ग्रहण करने हेतु धान कोदों कुटकी देना पड़ता था। हमारे गांव सन् १९६५-६६ मे विकास का बहुत ही आभाव था। गांव में मात्र पांचवी तक की ही शिक्षा मिल पाती थी, उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु लंबी दूरी तय करके दुसरे गांव जाना पड़ता था।और यहां की सड़के गलियों की बात करें तो इसकी बहुत ही दयनीय स्थिति थी छोटे छोटे गिट्टियां बोलडर युक्त पत्थरों को व्यवस्थित कर आवागमन हेतु बनाया गया था। गांव की उत्थान के लिए अच्छे सड़क, पाठशाला, बिजली, नलकूप जैसे अन्य दैनिक संसाधनों का उपयुक्त होना आवश्यक था। जब बारिश का मौसम दस्तक देता था तो गांव की दृश्य ही बदल जाता था सड़के गलियां कीचड़ युक्त होता था यहां तक की लोग अपने दैनिक दिनचर्या के कार्य को करने में भी असमर्थ हो जाते थे। सड़कों के सुव्यवस्थित ना होने के कारण विद्यार्थी शिक्षा से वंचित हो जाते थे बड़े-बड़े साहूकार गौटिया जैसे धनी लोगों के यहां मजदूरी करने में विवश हो जाते थे। पर वो छत्तीसगढ़ी में एक कहावत है न कि “घुरूवा के दिन घलो बहुरथे ” समय के साथ साथ सभी शिक्षित हुए और शासन प्रशासन की कृपा दृष्टि कहे जाए या गांव की एकता आपसी तालमेल भाईचारे की भावना ने हमारे गांव का कायाकल्प ही बदल दिया गांव प्रगति पथ पर अग्रसर होता गया सभी सड़के गलियां पक्की हो गई। हमारे गांव में पहली बार बिजली सन १९८४ में आयी थी। तब से लेकर आज तक किसी के आसियाने में अंधेरा नहीं हुआ। और बुजुर्गो से पता चला कि हमारे गांव में शासकीय उचित मूल्य की दुकान पहली बार १९८१ मे संचालित हुआ था।

परिचय :- खुमान सिंह भाट
पिता : श्री पुनित राम भाट
निवासी : ग्राम- रमतरा, जिला- बालोद, (छत्तीसगढ़)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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