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ये बेटियाँ लावणी छंद

शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’
तिनसुकिया (असम)
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घर की रौनक होती बेटी, है उमंग अनुराग यही।
बेटी होती जान पिता की, है माँ का अभिमान यही।।

जब हँसती खुश होकर बेटी, आँगन महक उठे सारा।
मन मृदङ्ग सा बज उठता है, रस की बहती है धारा।।
त्योंहारों की चमक बेटियाँ, मन मन्दिर की ज्योति है।
प्रेम दया ममता का गहना, यही बेटियाँ होती है।।
महक गुलाबों सी बेटी है, कोयल की है कूक यही।
बेटी होती जान पिता की, है माँ का अभिमान यही।।

बसते हैं भगवान जहाँ खुद, उनके घर यह आती है।
पालन पोषण सर्वोत्तम वह, जिनके हाथों पाती है।।
पल में सारे दुख हर लेती, बेटी जादू की पुड़िया।
दादा दादी के हिय को सुख, देती हरदम ये गुड़िया।।
माँ शारद लक्ष्मी दुर्गा का, होती है सम्मान यही।
बेटी होती जान पिता की, है माँ का अभिमान यही।

मात पिता के दिल का टुकड़ा, धड़कन बेटी होती है।
रो पड़ता है दिल अपना जब, दुख से बेटी रोती है।।
जाती है ससुराल एक दिन, दो-दो कुल महकानें को।
मीठी बोली से हिय बसकर, घर आँगन चहकाने को।।
बेटी की खुशियों का दामन, अपनी तो मुस्कान यही।
बेटी होती जान पिता की है माँ का अभिमान यही।

परिचय :- शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’ (विद्यावाचस्पति)
जन्मदिन एवं जन्मस्थान : २६ नवम्बर १९६९, सुजानगढ़ (राजस्थान)
निवासी : तिनसुकिया (असम)
प्रकाशित पुस्तकें : एकल ५ कविता संग्रह- “दर्पण”, “साहित्य मेध”, “मन की बात”, “काव्य शुचिता”, तथा “काव्य मेध” अन्य रचनाएँ देश की सम्मानित वेब पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। हिंदी साहित्य से जुड़े विभिन्न ग्रूप और संस्थानों से कई अलंकरण और प्रसस्ति पत्र नियमित प्राप्त होते रहते हैं। हिंदी साहित्य की पारंपरिक छंदों में विशेष रुचि और मात्रिक एवं वर्णिक लगभग सभी प्रचलित छंदों में काव्य सृजन में सतत संलग्न।)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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