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चिंगारी

केदार प्रसाद चौहान
गुरान (सांवेर) इंदौर
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जलती हुई चिंगारी हमेशा
समाज को रोशन करती है
दूसरों की भलाई के लिए
स्वयं जल जाती है
और जलने वालों का भी
पोषण करती है
ना ही कभी किसी का और
समाज का शोषण करती है

चूल्हे में दबीहुई चिंगारी से
जब राख हटाते हैं
तभी चूल्हा जलापाते हैं
और रोटी पकाकर खाते हैं
तब मानव रूपी पुतले अपना
पेट भर पाते हैं तब इतराते हैं

फिर वह होली जलाने वाली
आग हो या चूल्हे में दबी चिंगारी
जब हट जाती है उसपर चढ़ी राख
तो हरे भरे जंगल को भी
जलकर करदेती है खाक

ऊंचे-ऊंचे पेड़ जो
आसमान को छूकर अपने
घमंड मैं ईतराते हैं
वह भी चूल्हे में दबी चिंगारी
की आग से राख हो जाते हैं
तब उसकी अहमियत
पता चलती है के
एक छोटी सी चिंगारी
पूरे जंगल पर पड़ गई भारी

परिचय :-  “आशु कवि” केदार प्रसाद चौहान के.पी. चौहान “समीर सागर” 
निवास – गुरान (सांवेर) इंदौर

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