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योग छंद “विजयादशमी”

शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’
तिनसुकिया (असम)
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अच्छाई जब जीती, हरा बुराई।
जग ने विजया दशमी, तभी मनाई।।
जयकारा गूँजा था, राम लला का।
हुआ अंत धरती से, दुष्ट बला का।।

शक्ति उपासक रावण, महाबली था।
ग्रसित दम्भ से लेकिन, बहुत छली था।
कूटनीति अपनाकर, सिया चुराई।
हर कृत्यों में उसके, छिपी बुराई।।

नहीं धराशायी हो, कभी सुपंथी।
सर्व नाश को पाये, सदा कुपंथी।
चरम फूट पापों का, सदा रहेगा।
कब तक जग रावण के, कलुष सहेगा।।

मानवता की खातिर, शक्ति दिखाएँ।
जग को सत्कर्मों की, भक्ति सिखाएँ।।
राम चरित से जीवन, सफल बनाएँ।
धूम धाम से हम सब, पर्व मनाएँ।।

योग छंद विधान-
योग छंद एक सम पद मात्रिक छंद है, जिसमें प्रति पद २० मात्रा रहती हैं। पद १२ और ८ मात्रा के दो यति खंडों में विभाजित रहता है। १२ मात्रिक प्रथम चरण में चौकल अठकल का कोई भी संभावित क्रम लिया जा सकता है।
इसकी तीन संभावनाएँ हैं जो तीन चौकल, चौकल + अठकल और अठकल + चौकल
के रूप में है।

८ मात्रिक दूसरे चरण का विन्यास निम्न है –
त्रिकल, लघु, तथा दो दीर्घ वर्ण (SS) = ३+१+४ = ८
त्रिकल के तीनों (१२, २१, १११) रूप मान्य है।
दो-दो या चारों पद समतुकांत होते हैं।

परिचय :- शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’ (विद्यावाचस्पति)
जन्मदिन एवं जन्मस्थान : २६ नवम्बर १९६९, सुजानगढ़ (राजस्थान)
निवासी : तिनसुकिया (असम)
प्रकाशित पुस्तकें : एकल ५ कविता संग्रह- “दर्पण”, “साहित्य मेध”, “मन की बात”, “काव्य शुचिता”, तथा “काव्य मेध” अन्य रचनाएँ देश की सम्मानित वेब पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। हिंदी साहित्य से जुड़े विभिन्न ग्रूप और संस्थानों से कई अलंकरण और प्रसस्ति पत्र नियमित प्राप्त होते रहते हैं। हिंदी साहित्य की पारंपरिक छंदों में विशेष रुचि और मात्रिक एवं वर्णिक लगभग सभी प्रचलित छंदों में काव्य सृजन में सतत संलग्न।)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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