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नरहरि छंद “जय माँ दुर्गा”

शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’
तिनसुकिया (असम)
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जय जग जननी जगदंबा, जय जया।
नव दिन दरबार सजेगा, नित नया।।
शुभ बेला नवरातों की, महकती।
आ पहुँची मैया दर पर, चहकती।।

झन-झन झालर झिलमिल झन, झनकती।
चूड़ी माता की लगती, खनकती।।
माँ सौलह श्रृंगारों से, सज गयी।
घर-घर में शहनाई सी, बज गयी।।

शुचि सकल सरस सुख सागर, सरसते।
घृत, धूप, दीप, फल, मेवा, बरसते।।
चहुँ ओर कृपा दुर्गा की, बढ़ रही।
है शक्ति, भक्ति, श्रद्धा से, तर मही।।

माता मन का तम सारा, तुम हरो।
दुख से उबार जीवन में, सुख भरो।।
मैं मूढ़ न समझी पूजा, विधि कभी।
स्वीकार करो भावों को, तुम सभी।।

नरहरि छंद विधान-
नरहरि छंद एक सम पद मात्रिक छंद है, जिसमें प्रति पद १९ मात्रा रहती हैं। १४, ५ मात्रा पर यति का विधान है। दो-दो या चारों पद समतुकांत होते हैं। इसका मात्रा विन्यास निम्न है-
१४ मात्रिक चरण की प्रथम दो मात्राएँ सदैव द्विकल के रूप में रहती हैं जिसमें ११ या २ दोनों रूप मान्य हैं। बची हुई १२ मात्रा में चौकल अठकल की निम्न तीन संभावनाओं में से कोई भी प्रयोग में लायी जा सकती है।
तीन चौकल,
चौकल + अठकल,
अठकल + चौकल
दूसरे चरण की ५ मात्राएँ लघु लघु लघु गुरु(S) रूप में रहती हैं।

परिचय :- शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप’ (विद्यावाचस्पति)
जन्मदिन एवं जन्मस्थान : २६ नवम्बर १९६९, सुजानगढ़ (राजस्थान)
निवासी : तिनसुकिया (असम)
प्रकाशित पुस्तकें : एकल ५ कविता संग्रह- “दर्पण”, “साहित्य मेध”, “मन की बात”, “काव्य शुचिता”, तथा “काव्य मेध” अन्य रचनाएँ देश की सम्मानित वेब पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। हिंदी साहित्य से जुड़े विभिन्न ग्रूप और संस्थानों से कई अलंकरण और प्रसस्ति पत्र नियमित प्राप्त होते रहते हैं। हिंदी साहित्य की पारंपरिक छंदों में विशेष रुचि और मात्रिक एवं वर्णिक लगभग सभी प्रचलित छंदों में काव्य सृजन में सतत संलग्न।)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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