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शाम की धूप

काजल
स्वरूप नगर (नई दिल्ली)
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शाम की वो छलती धूप,
दीप से थोड़ी कम लगती है
पर कुछ अच्छी सी लगती हैं।
छूती है जब तन को
ठंडे पवन के साथ,
शरारत सी करती है
पर कुछ अच्छी सी लगती हैं।
ढलते सूरज को देख ऐसा लगता है
कोई किताब बस्ते में रखता है,
छुट्टी होने की खुशी झलकती है
इसलिए अच्छी सी लगती है।
शाम की वो छलती धूप
बड़ी प्यारी सी लगती है
गलियों में सब निकल कर आते है
बच्चे शोर मचाए चले जाते है
उनपर वो छलती धूप,
प्यार बरसाती है,
इसीलिए
सोने की छलनी सी लगती है,
पर कुछ अच्छी सी लगती है।
धूप के बिछड़ते ही चांद आता है
रोशनी चांदनी में बदलती है,
थोड़ी और शीतल होकर,
जुबां पर हँसी सी खिलती है,
पर कुछ अच्छी सी लगती है।
पक्षियों का चहकना,
हवाओं के साथ उड़ना
बिना रुकावट के
मन के पंखों को उड़ान देती है,
इसीलिए अच्छा सी लगती है।

परिचय :-  काजल
पिता : सोहन सिंह
निवासी : स्वरूप नगर, नई दिल्ली
संस्थान : एम.ए. हिंदी विभाग (दिल्ली विश्वविद्यालय)
घोषणा पत्र : मेरी यह कविता स्वरचित एवं मौलिक तथा अप्रकाशित है।


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